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शनिवार, 5 जून 2010

प्रागैतिहासिक दौर की किताबें

नैसर्गिक जिज्ञासा
के वशीभूत,
एक बहुत ही पुरानी
प्रागैतिहासिक दौर की हाथ आई
किताब के जर्जर पन्ने पलटते हुए पाया
कि उसके सारे शब्द मर चुके थे
और जो अक्षर थे कभी
अब झड रहे थे
उन पीले पन्नों से बासी विचारों की
सडांध-बास आ रही थी...

चकित हुआ
और दूसरे ही पल
समझ भी गया
कि क्यों मकान के
सबसे पवित्र आले में
संभालकर रखी होती हैं ये किताबें
कि क्यों बड़े जतन से
बांचते हैं
इस तरह की किताबें--
पगड़ी-तिलक-मुच्छड़
लुच्चे फर्माबदार
लकीरों के टुच्चे पहरेदार
मात्र अपने लिंग के ही प्रति वफादार...

ऐसी किताबें,
जिनमें खालिस मुर्दा अर्थों
और अप्रासंगिकता से अधिक कुछ नहीं है
दुनिया जिन्हें अपनी
सहूलियत के हिसाब से
व्याख्यायित करती है...
तुम्हारी जाति के वास्ते
सबसे जरूरी घोषित करती है...
जो इस सदी में
बेहद गैर-जरूरी काम है,
मगर उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है.

ये किताबें,
हर तनी हुई मुट्ठी, उठे हुए सरों को
बर्दाश्त न करने का गुर सिखाती हैं...
इन किताबों से
निर्धारित होने वाले षड्यंत्र
मुझे और तुम्हें
लिंगविहीन-विचारहीन-दृष्टिहीन-रीढ़हीन
बनाते चलते हैं...

मैं उस किताब को
पेशाबघर की दीवार के पीछे
गाड़ के आ गया हूँ...

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