जैसे खिड़की खोलते ही आती है ताजी हवा
जैसे बारिश की रातों में चाँद पर
आ जाते हैं हलके बादल,
आती है सुबह, घास पर ओस की बूंदें...
जैसे आती है बारिश, ठण्ड और गर्मी...
जैसे, आना होता है एक संभाव्य या निश्चितता
ऐसे ही आयीं लड़कियाँ...
कुछ भी नहीं था
तयशुदा,
सिवाए वादे किये जाने
और वादों को याद रखने के...
और बिना तय किये ही टूटते रहे वादे...
बावजूद इसके, मेरी वफ़ा किसी चमत्कार से हथियातीं
अपनी मासूमियत से मेरा भरोसा लूटती लडकियाँ...
और एक जिद की मानिंद मैं प्यार करता उनसे
हलके रंगों में हम ढूंढते रहे
आपस की वचनबद्धता...
फूलों और गंध के बीच
हवा की जिम्मेदारी...
कुछ ऐसे ही ढूँढना था
हमें अपने मिलने और साथ होने का सबब
फिर किसी रोज
हम बिछुड़ते थे अजनबियों की तरह
एक दूसरे को भविष्य की शुभकामनायें देते हुए...
एकदम निष्पाप बन जाते हुए...
वसंत के ठीक पहले आती रहीं लड़कियाँ
और पतझड़ से ऐन पहले विदा हो जाती लड़कियाँ...
जैसे किसी फ़िल्मी पटकथा में ऐसा ही लिखा गया हो !
यादों के गुब्बार छोडती लड़कियों का
मेरे इतिहास से इतना ही बाबस्ता रहा...
कि उनकी भूमिका सिर्फ़ यादें उत्पादित करना था...
मेरी शक्ल पर गमज़दा मुखौटे चढ़ाती लड़कियाँ
मुझे खुश रहने देने की खुशफहमियां देने वाली वो लड़कियाँ,
मेरी आत्मा को जज्बातों की प्रयोगशाला में तब्दील करने वाली लड़कियाँ
गैर-पते की चिठ्ठियों की तरह
डाक-खाने में हीं गुम हो गयीं...
चूँकि हमारे रिश्तों में ईमानदार होना कोई नियम नहीं था,
अपना ईमान साबुत लेकर चली गयीं लड़कियाँ...
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