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सोमवार, 21 जून 2010

विपरीत यात्रा

मृत्यु से जन्म के बीच
एक उलटी यात्रा करना चाहता हूँ
वापस उन्हीं पद्चापों को अनुसरित करता
फिरता हुआ...
घड़ी को चकमा देकर,
समय के गर्भ में जाना चाहता हूँ,

होना चाहता हूँ
फिर प्रौढ़, युवा, बाल...
चाहता हूँ लेट जाना...
मुझे माँ की उष्म गोद में निश्चिन्त और निसंताप...
समर्पित होकर खो जाना...
प्रेयसी की कोमल कसती बाँहों के घेरे में चुपचाप
होना एकाकार ...
पत्नी की छाती में निर्विकार

बचपन की गलियों में बेफ़िक्र घूमना चाहता हूँ
कंचे या क्रिकेट खेलते,
मीना बाजारकी रौनक में झूला झूलते...
मस्ती में जीना चाहता हूँ...
उस मौज को

चला जाना चाहता हूँ... समय के सारे पहरे तोड़ कर अनायास ही
पीछे, पीछे, तारीखों में बहुत पीछे...
और भाग कर फिर से माँ से लिपट जाना चाहता हूँ...
अपने सारे संताप, सभी निराशाएँ, सब विफलताएं...
मिटा देना चाहता हूँ...

चूक जाने से पहले पूरी उत्तेजना में भरकर
एक बार अपने पुरे वजूद के साथ
पत्नी को चूमना चाहता हूँ
और कहना चाहता हूँ अस्फुट आवाज़ में
कि, तुमने मेरी जिंदगी को सिंदूर की तरह निभाया...

भूगोल की दूरियों से
या समय की सुईयों से
नहीं नापी जा सकती
मेरी विपरीत यात्रा,
माँ तक...
प्रेयसी तक...
पत्नी तक...
ये मेरी देहातीत से फिर देह होने की यात्रा
क्योंकि मैं,

माँ के वक्ष से पहला आहार पाने से लेकर
पत्नी से सहवास की जैविक परम संतुष्टि तक...
मेरी जिंदगी के कुछ बेहद, बेहद निजी अर्थों को फिर से
उन्माद में लबरेज हो,
समझना चाहता हूँ...
दार्शनिक हुए बिना भोग लेना चाहता हूँ...
फिर कोई नया जन्म लेने से पहले !

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