बहुधा ऐसा होता रहा था कि
एकदम वही या उस जैसा ही कोई दृश्य
अक्सर कई अलग अलग तरह से, अलग अलग कोणों से...
अलग-अलग जगहों पर, अपने जेहन के कैनवास पर उतरता
और फिर आदतन या लापरवाही से कुछ ही मिनटों या
उसके एकाध दिन बाद
खुद-ब-खुद पोंछ डाला जाता था...
ऐसा होना इसलिए था, कि हम सबकी मशरूफियत
दुसरे किसी से ज्यादा, सिर्फ़ अपने लिए थी...
हम सभ्य होकर भी नकारे और बेहया थे...!
तो वही दृश्य एक बार फिर उस दोपहर
सामने था... वह अठारह-उन्नीस की युवती माँ !
गरीबी रेखा से नीचे बसर करती होगी वह...
और होगी अंदर से बेहद ताकतवर, पर चुप थी...
कुछ बोलती भी, तो क्यों और किसे !
छाती से चिपकाये हुए थी अपने नवजात से कुछ बड़े, शायद...
दो-तीन माह के शिशु को... जो लगा, शायद बच्ची रही होगी...
ट्रेन के चल पड़ने तक गेट के पास किसी तरह सहारा लिए खड़ा मैं
उसे ही देख रहा था, कि उसने एक नज़र में ही मेरा ध्यान खींच लिया था
और मैं अपने बुद्धिजीवी होने की गैरत के साथ, उसके बारे में
यह सब सोचना शुरू कर चुका था, जो अभी आपके सामने है !...
ठीक उसके पास खड़ा मैं... और वह गेट के पास निश्चिन्त बैठी हुई !
गोद का बच्चा जोर से रोया, तब वह बिल्कुल अकुंठ भाव से,
एकदम निर्द्वंद... बेपरवाह उस भीड़ और शोरगुल के बीच,
जिसके दायरे में वह बैठी थी... अपना स्तन
उस अबोध के मुँह में
ठूँस दी !
(बिना इस बात कि परवाह किये कि उसका अर्ध-विकसित
या कुपोषित स्तन सर्व-समक्ष हो रहा है!)
उसका वह बच्चा जितनी बार रोता,
वह अमूमन यही दोहराती !
बीच-बीच में उसे पुचकारती, चूमती...
और फिर, इधर-उधर की रेलमपेल देखने लगती...
वह मानों खुद उस दृश्य का हिस्सा नहीं थी...!
जब किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकती
लोग उसे लगभग कुचलते हुए ही चढ़े आते ! कोई बोलता,
गेट के पास बैठी हो तो बर्दाश्त करना पड़ेगा...!
हाशिए के बाहर हो गए आदमी को भी
"बर्दाश्त" करना पड़ता है !... उसकी जगह कहीं नहीं होती...!
फिर मैं सोचता हूँ, वह क्या कुछ नहीं बर्दाश्त कर चुकी...
और करती होगी !
मेरा यह सब सोचना बहरहाल, सोचना ही है, इसके अलावा कुछ नहीं !
मामूली फटी और पुरानी सी साड़ी में सकुचाया-सिकुड़ा शरीर उसका,
एक बोसीदा सी गंध छोड़ता...
और रूखे-धूसरित बाल,
नाक के पास दाहिनी तरफ, थोड़ा माध्यम आकर का कला मस्सा,
निर्दोष लगती आँखें...
कुल जमा यही हुलिया बनता था उसका... इसमें नया या अलग कुछ नहीं था...
(हमारी आँखें क्या इसके लिए अभ्यस्त नहीं हो चुकी हैं !
और चूक गई है हमारी संवेदनाएं... क्योंकि हमारी हदें हमारी चौहद्दी हैं !
जिसके बाहर हम झांकते नहीं, और झाँक गए तो कुढते रहते हैं...)
और उसका शिशु एकाएक चुप होकर, भौंचक्का... इस दुनिया को ताकता...
किसी ने बिस्कुट के दो टुकड़े उसकी ओर बढ़ाये, वह मुस्कुराकर ले ली...
मैंने सोचा, होगा उसका ही संबंधी, मगर ऐसा नहीं था ! तो, क्या
उस आदमी की यह सहानुभूति सिर्फ़ बेदाग सहानुभूति थी, या...?
(होगी भी यदि स्वच्छ भावना, हमारे मध्यवर्गीय मानस पर तो उसके पीछे भी
प्रश्नवाचक ही लगाती है !)
ठीक इसी समय, जब कोई स्टेशन आने वाला था...
अठारह-उन्नीस साल की, उसी की लगभग हमउम्र...
दो-तीन लड़कियाँ गेट के पास आ खड़ी हुईं, उन्हें उतरना था
वह भी उठी, उतरना उसे भी यहीं था...
वह लड़कियाँ बतियातीं, मुस्कुरातीं,
कॉलेज जाने वाली या सम्भवत: किसी प्रशिक्षण केंद्र से लौटतीं
आधुनिक... और सभ्य समाज में संभ्रांत कही जाने वालीं
उस की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहीं थीं, जो बिल्कुल उन्हीं की तरह है !
समलिंगी, उतनी ही कद-काठी, वही उम्र...
और वह प्राय: उन लड़कियों के
ठीक पास खड़ी, मानो उन्हीं में से एक हो,
उनका चेहरा तकती और गोद में सिमटे शिशु को. जिसे...
एक कपडे से कसकर अच्छी तरह अपनी छाती से बांध लिया था,
पुचकार कर चूम रही थी... क्या वह कुछ जता रही थी उन्हें ?
पता नहीं, ये कैसे तय होता होगा, कि दृश्यों का शाब्दिक अर्थ कौन
लगा सकता होगा, ठीक-ठीक !
एक ही उम्र के दो चेहरे...दो नियतियाँ...दो अलग जिंदगियाँ...
और बीच में मौन ! और ट्रेन की धडधडाहट...
कौन किधर जाने वाला था... यह मैं कुछ देर सोचता रहा, फिर भूल गया...
जबकि वे सब और वह उसी स्टेशन पर उतर गयीं...
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
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शनिवार, 15 जनवरी 2011
वह अठारह-उन्नीस की युवती माँ ! - (डायरी जैसी कविता)
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कितनी गहन रचना और सूक्ष्म नज़र दिल मे उतर गयी……………यथार्थ का जीवन्त चित्रण कर दिया।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
अच्छा लगा यूँ जीवन को इतना करीब से देखना सुन्दर शब्द चयन सुदर भावनाएं. शब्द पुष्टिकरण हटा दें तो आसानी होगी धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..
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