खिड़की से बाहर...
सायरन की तरह बजती घंटियों की तरह
टन-टन-टन... एक बार फिर,
किसी आपातकाल की घोषणा करते, बौखलाए हुए
अंधड़ की तरह कुछ घटित हो रहा था...
भूख, बीमारी, विश्वासघात से बिलबिलाया और
अपने जमीन-जंगल-पानी से खदेड़ा गया
आदमी
विरोध के नारे लिखी तख्तियाँ
हाथों में उठाये... जबरदस्त उछाह और
उसके पीछे उसी नस काटती तकलीफ को दबाए...
नारों को लहराते हुए अचानक...
मेरी ओर देखता बोलने लगा...
"सुनो दादा, आप भी लड़ाई में हो, साथ दो..."
(वरना कल तुम भी मारे जाओगे, यह वह नहीं कहता था
मगर उसकी आवाज़ की प्रतिध्वनि में मुझे यही सुनाई दे रहा था...)
और मैं पसीने से भीगा
अपनी मेज़ पर कागज-कलम लेकर बैठ जाता...समाधिस्थ !
विरोध करने का मेरा
यह अपना तरीका था,
ख़ामोशी से चिल्लाने का अचूक नुस्खा था !
मुझमें रक्तपात, धूप, लाठीचार्ज सहने
और आमना-सामना करते हुए बन्दीगृह जाने की कूबत नहीं थी !
मैं विरोध में सिर्फ़ 'चिन्तन' और 'शब्द-वमन' किया करता था...
मगर अपनी ज़मीन से उखड़ा...
बेइज्जत और भूखा... दिन-दहाड़े लोकतंत्र में, संविधान के आलोक में
लूटा गया आम आदमी, हार नहीं मान सकता था...
किसी भी मोर्चे पर,
वरना हार मान लेने पर वह शर्तिया समाप्त हो जाता
तमाम लाल-फीते से दम घोंटी गई फाइलों की तरह...
उसे मेरी विद्वता पर... मेरे पौरुष (!) पर
जबरदस्त भरोसा था...
कि मैं,
अब-अब-अब... उठूँगा, चीखूँगा...
मुट्ठियाँ बाँध कर भुजाएँ लहराऊँगा...
मानवता के साथ कामुक सत्ता जो बलात्कार कर रही है,
उसे रोकने के लिए 'टॉर्च' की रौशनी
अँधेरे में फेंकूँगा !...
मगर मैं संकोच और सुविधाओं से क्रमश:
पस्त था,
मस्त था...
और इसी तरह एक दिन
अस्त होने वाला था !
लोग सड़कों, चौराहों, गलियों में...
राजपथ पर... राजभवन के सामने...
जुलूस निकाल रहे थे
धरना दे रहे थे...
आँसू गैस-लाठी-गोली झेल रहे थे...मर रहे थे...
मैं उस समय समाचार पढ़ या देख रहा था...
कोई परिचित और 'पढ़ने-लिखने' वाला मिल जाये
तो उससे इन सब मसलों पर 'चर्चा' कर रहा था
और वापस घर आकर अपने दंतमंजन, अपनी थाली, अपनी रजाई...
आदि का बजाफ्ता इस्तेमाल कर रहा था !
और मैं पढ़ता ही जा रहा था,
गोर्की - "मदर", प्रेमचंद-'जुलूस'...
मार्क्सवाद... कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो...
मैं पढ़ता ही जा रहा था,
लेनिन...भगत सिंह...गाँधी...बुद्ध...
माओत्से-तुंग, दलाई लामा...
नक्सलबाड़ी...
पढ़ रहा था, "द्रुत झरो हे जगत के जीर्ण पत्र !"
...'बदल राग'...
और, "जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक "
और, "शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो"...
पढते-पढते मैं 'आग' से भर जाता और
अपने अध्ययन-कक्ष नुमा छ: बाई आठ के कमरे में
एक ज्वलनशील क्रांतिकारी में मेरा 'मेटामोर्फोसिस' हो जाता !
मगर मैं, खिड़की के बाहर, जून की दोपहर की
कडियल में धूप में,
प्यास से मरते उस पागल बूढ़े को
पुचकार कर पानी पिलाने नहीं जा रहा था...,
नहीं जा रहा था, पुलिस की लाठी से
पिटते हुए आदिवासियों की पीठ सहलाने...
मैं नहीं समझा रहा था लोगों को "चुनाव" का
समसामयिक मतलब और मकसद !
मैं घर से नहीं निकल रहा था, उन जमीनी मुद्दों पर
न्याय के हक़ में झंडा बुलंद करने... जिन मुद्दों पर,
शाम को अपने पड़ोसी से रात के खाने के पहले
या चौक पर किसी परिचित से चाय-पान निपटाते हुए
जोरदार बहस किया करता था...
मैं पढ़ रहा था, और अपनी कलम माँज रहा था,
कुछ ऐसे कि तलवार "भांज" रहा था...
मैं कुछ नहीं कर रहा था, कि
(जबकि 'सूचना का अधिकार' कानून लागू हो चुका था !)
नरेगा, मनरेगा, इंदिरा आवास योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना... आदि-आदि के
ठेकेदारों और बिचौलियों की कमर उनके दर्जी के अनुसार
ढाई से तीन इंच फैल गई थी...
एक पूर्व मुख्यमंत्री जनता के करोड़ों-अरबों रूपये पेल कर
पाँच-सितारा नर्सिंग-होम में "अभियुक्त-जीवन" का मज़ा ले रहा था !
राष्ट्रीय-घोटालों के जनपदीय प्रतिनिधि शान से राजपथ पर
लंबे-लंबे डेग भरते संसद की ओर जा रहे होते थे...
और विरोध की तमाम सरगोशियों को
गले में ही चाँप दिया जा रहा था...यह एक खामोश प्रक्रिया थी...
मैं जान रहा था, पर निष्क्रिय था...
मैं सम्पादकीय-पृष्ठ पर लेख भेज कर तुष्ट था...
मुझे मालूम था कि मैं क्रांतिकारी था, बहादुर था...मैं घोर अध्ययनशील था...!
और इसी विद्वता से पैदा हुई
ठण्डी-निस्तेज-कागज़ी विप्लव के खेल में
अपने मुँह-मियां-शेर था !
आम आदमी सड़क पर
दफ्तर में...बाज़ार में... सभाओं में...
मेरे घर के सामने... जब भी मुझे पाता,
कई बार मेरी ओर से हतोत्साहित हो चुका रहने के बावजूद
बड़ी उम्मीद से
मुझे टोहता-टेरता रहता था,
मैं कुछ करूँगा...
कि में चीजें बदल दूँगा...
'एक पत्थर तबियत से उछालूँगा और आसमान में
सुराख़ कर दूँगा !"
एक झंडा, एक बैनर, एक पोस्टर लिए निकल
पडूँगा... "बेहतर के लिए बदलाव" जैसे स्लोगन के शीर्षक वाले
पैम्फलेट, हैण्डबिल, पर्चे गली-गली घूमकर, चौकों पर लोगों
में बाँटूँगा...!
आम आदमी को मुझसे कई सारी अपेक्षाएं थीं...
उसे मुझ पर आस्था यह थी कि
मैं ताकतवर हूँ...
क्योंकि मेरे पास किताबे थीं...
मेरी ऊपरी जेब में कलम खुँसी रहती थी...
और नाक पर एक अदद ऐनक !
लेकिन मैं अपने "खोल" में सुरक्षित होने का भ्रम लिए
उसको ठेंगा दिखा रहा था...
वह आम आदमी मुझे - "दादा"...कहता था,
और मैं बेशर्मी से उम्मीद किया करता था
कि वह मुझे 'कॉमरेड" कहे !
कुछ बातें जो रह जाती हैं कभी मन में, अनकही- अनसुनी... शब्दों के माध्यम से रखी जा सकती हैं,बरक्स... मेरे-तेरे मन की कई बातें... कई सारे अनुभव, कई सारे स्पंदन, कई सारे घाव और मरहम... व्यक्त होते हैं शब्दों के माध्यम से... मेरा मुझी से है साक्षात्कार, शब्दों के माध्यम से... तू भी मेरे मनमीत, है साकार... शब्दों के माध्यम से...
गठरी...
25 मई
(1)
३१ जुलाई
(1)
अण्णाभाऊ साठे जन्मशती वर्ष
(1)
अभिव्यक्ति की आज़ादी
(3)
अरुंधती रॉय
(1)
अरुण कुमार असफल
(1)
आदिवासी
(2)
आदिवासी महिला केंद्रित
(1)
आदिवासी संघर्ष
(1)
आधुनिक कविता
(3)
आलोचना
(1)
इंदौर
(1)
इंदौर प्रलेसं
(9)
इप्टा
(4)
इप्टा - इंदौर
(1)
इप्टा स्थापना दिवस
(1)
उपन्यास साहित्य
(1)
उर्दू में तरक्कीपसंद लेखन
(1)
उर्दू शायरी
(1)
ए. बी. बर्धन
(1)
एटक शताब्दी वर्ष
(1)
एम् एस सथ्यू
(1)
कम्युनिज़्म
(1)
कविता
(40)
कश्मीर
(1)
कहानी
(7)
कामरेड पानसरे
(1)
कार्ल मार्क्स
(1)
कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती
(1)
कालचिती
(1)
किताब
(2)
किसान
(1)
कॉम. विनीत तिवारी
(6)
कोरोना वायरस
(1)
क्यूबा
(1)
क्रांति
(3)
खगेन्द्र ठाकुर
(1)
गज़ल
(5)
गरम हवा
(1)
गुंजेश
(1)
गुंजेश कुमार मिश्रा
(1)
गौहर रज़ा
(1)
घाटशिला
(3)
घाटशिला इप्टा
(2)
चीन
(1)
जमशेदपुर
(1)
जल-जंगल-जमीन की लड़ाई
(1)
जान संस्कृति दिवस
(1)
जाहिद खान
(2)
जोश मलीहाबादी
(1)
जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज
(1)
ज्योति मल्लिक
(1)
डॉ. कमला प्रसाद
(3)
डॉ. रसीद जहाँ
(1)
तरक्कीपसंद शायर
(1)
तहरीर चौक
(1)
ताजी कहानी
(4)
दलित
(2)
धूमिल
(1)
नज़्म
(8)
नागार्जुन
(1)
नागार्जुन शताब्दी वर्ष
(1)
नारी
(3)
निर्मला पुतुल
(1)
नूर जहीर
(1)
परिकथा
(1)
पहल
(1)
पहला कविता समय सम्मान
(1)
पाश
(1)
पूंजीवाद
(1)
पेरिस कम्यून
(1)
प्रकृति
(3)
प्रगतिशील मूल्य
(2)
प्रगतिशील लेखक संघ
(4)
प्रगतिशील साहित्य
(3)
प्रगतिशील सिनेमा
(1)
प्रलेस
(2)
प्रलेस घाटशिला इकाई
(5)
प्रलेस झारखंड राज्य सम्मेलन
(1)
प्रलेसं
(12)
प्रलेसं-घाटशिला
(3)
प्रेम
(17)
प्रेमचंद
(1)
प्रेमचन्द जयंती
(1)
प्रो. चमन लाल
(1)
प्रोफ. चमनलाल
(1)
फिदेल कास्त्रो
(1)
फेसबुक
(1)
फैज़ अहमद फैज़
(2)
बंगला
(1)
बंगाली साहित्यकार
(1)
बेटी
(1)
बोल्शेविक क्रांति
(1)
भगत सिंह
(1)
भारत
(1)
भारतीय नारी संघर्ष
(1)
भाषा
(3)
भीष्म साहनी
(3)
मई दिवस
(1)
महादेव खेतान
(1)
महिला दिवस
(1)
महेश कटारे
(1)
मानवता
(1)
मार्क्सवाद
(1)
मिथिलेश प्रियदर्शी
(1)
मिस्र
(1)
मुक्तिबोध
(1)
मुक्तिबोध जन्मशती
(1)
युवा
(17)
युवा और राजनीति
(1)
रचना
(6)
रूसी क्रांति
(1)
रोहित वेमुला
(1)
लघु कथा
(1)
लेख
(3)
लैटिन अमेरिका
(1)
वर्षा
(1)
वसंत
(1)
वामपंथी आंदोलन
(1)
वामपंथी विचारधारा
(1)
विद्रोह
(16)
विनीत तिवारी
(2)
विभाजन पर फ़िल्में
(1)
विभूति भूषण बंदोपाध्याय
(1)
व्यंग्य
(1)
शमशेर बहादुर सिंह
(3)
शेखर
(11)
शेखर मल्लिक
(3)
समकालीन तीसरी दुनिया
(1)
समयांतर पत्रिका
(1)
समसामयिक
(8)
समाजवाद
(2)
सांप्रदायिकता
(1)
साम्प्रदायिकता
(1)
सावन
(1)
साहित्य
(6)
साहित्यिक वृतचित्र
(1)
सीपीआई
(1)
सोशल मीडिया
(1)
स्त्री
(18)
स्त्री विमर्श
(1)
स्मृति सभा
(1)
स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीयकरण
(1)
हरिशंकर परसाई
(2)
हिंदी
(42)
हिंदी कविता
(41)
हिंदी साहित्य
(78)
हिंदी साहित्य में स्त्री-पुरुष
(3)
ह्यूगो
(1)
रविवार, 9 जनवरी 2011
असल में ऐसा था...
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें