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बुधवार, 5 जनवरी 2011

कवि १९७०

इस वक्त जबकि कान नहीं सुनते हैं कवितायें
कविता पेट से सुनी जा रही है आदमी
गज़ल नहीं गा रहा है गज़ल
आदमी को गा रही है

इस वक्त जबकि कविता माँगती है
समूचा आदमी अपनी खुराक के लिए
उसके मुँह से खून की बू
आ रही है

.........................

कविता में जाने से पहले
मैं आपसे ही पूछता हूँ
जब इससे न चोली बन सकती है
न चगा;
तब आपै कहो ---
इस ससुरी कविता को
जंगल से जनता तक
ढोने से क्या होगा ?

.........................

सुविधा की तहजीब से बाहर
जहाँ चौधरी अपना चमरौधा
उतार गये हैं
कविता में
वहीँ कहीं नफरत का
एक डरा हुआ बिन्दु है
आप उसे छुओ;
वह कुनमुनायेगा
आप उसे कोंचो
वह उठ खड़ा होगा

...............................

पत्नी का उदास और पीला चेहरा
मुझे आदत-सा आंकता है

उसकी फटी हुई साड़ी से झाँकती हुई पीठ पर
खिड़की से बाहर खड़े पेड़ की
वहशत चमक रही है

मैं झेंपता हूँ
और धूमिल होने से बचने लगता हूँ
--------------
आप मुस्कुराते हो ?

'बढ़िया उपमा है'
'अच्छा प्रतीक है'
'हें हें हें ! हें हें हें !!'
'लीक है - लीक है'

और मैं समझता हूँ कि आपके मुँह में
जितनी तारीफ है
उससे अधिक पीक है

फिर भी मैं अंत तक
आपको सहूँगा
------------------
लेकिन जब हारूँगा
आपके खिलाफ़ खुद अपने को तोडूंगा
भाषा को हीकते हुए अपने भीतर
थूकते हुए सारी घृणा के साथ

अंत में कहूँगा ---
सिर्फ़, इतना कहूँगा ---
'हाँ, हाँ, मैं कवि हूँ;
कवि -- याने भाषा में
भदेस हूँ;

इस कदर कायर हूँ
कि उत्तरप्रदेश हूँ !'

"संसद से सड़क तक " कविता संग्रह से

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