ना दिलाओ याद...
ना कोई जिरह करो
बाबस्ता फिर उसी अफसाना-ऐ-उल्फत की
कि दिल दुखता है बहुत...
चाक हुआ जाता है !
बेरहम हुए वो जो
रहनुमा होंगे, जाना था कभी
अश्क अपने ही बहे,
खुद ही खाई जब शिकश्त...
कोई अपना बनते-बनते रह गया, या
ये बस अपनी आँखों का भरमाना था !
सारी हसरतों का सिला
एक मलाल रह गया यही...
हासिल होता जो चाहा था,
बस एक फैसले का
सूत भर फासला रह गया कहीं !
आज हम वही, रहगुजरों के
साये वही... ना कोई सदा, ना उम्मीद
ना इस दिल-ऐ-बेनूर के वफ़ा
का कोई मुरीद !
इस जाँ को तन्हा होना था, हो गया...
कौन होता है अपने जानिब
कौन जीता है, तेरी रूह में !
हम खुद ही जिए,
खुद ही मरे...
खुद ही डुबोई किश्ती
खुद ही तिरे...
खुद से खुद ही रहे हम
कौन क्या दिया, क्या ले गया !
किसने क्या बनाया हमको,
कौन हमें बिगाड़ गया !
फिर भी एक इल्तिजा है
ना कभी मेरी माज़ी की पूछना
यह जो वस्ल और हिज़्र की
रवायतें है, इनमें एक किताब
है ये शिकश्ताज़दा जिंदगी...
हर पन्ने पर कतरा-ऐ-खूँ है,
हर हर्फ़ पर ज़ख्म-ओ-नासूर मौजूँ है !
किसी सिरे को पकड़ कोई सवाल ना करना...
कि फिर दिल दुखेगा
फिर चाक हो जायेगा...!
ना दिलाओ याद
जवाब देंहटाएंना कोई जिरह करो
बाबस फिर उसी अफसाना ऐ उल्फत की
कि दिल दुखता है बहुत
चाक हुआ जाता है।
वाह वाह! सुन्दर रचना। आभार।
ना मेरा माजी की पूछना
जवाब देंहटाएंयह जो नस्ल है और हिज्र की.......
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी