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मंगलवार, 29 जून 2010

आज उसके रुखसार को जी भर देखा


आज उसके रुखसार को जी भर देखा
मुस्कुराई वह या वस्ल की वो राहत थी...

जर्द चेहरे पर भी एक नूर सा आ गया
उस नज़र में भी क्या बरकत थी...

गुल भी खिले थे, खार भी दरम्यां थे कई
उल्फत जो इक जिद थी, मुक्कमल हसरत थी

हमने पत्थरों पर लिखी एक दास्ताँ प्यारी
मोहब्बत हमारी एक मासूम सी इबारत थी

पत्थर तो आए बहुत हमारे सर को
इश्क में भी वो फौलाद-ए-नजाकत थी

अब तो बाकि उम्र का जाने हासिल क्या हो
गले लगकर गुज़रे लम्हात ही सारी नेमत थी

पेशानी पर उसके पसीना, रुख पे अश्क ढुलके
थोड़ी देर को ही रूबरू थे,फिर तो क़यामत थी

- २९/०६/२०१० की सुबह

गुरुवार, 24 जून 2010

आम आदमी और भाषा का रिश्ता (कुछ व्याख्याएं, कुछ निष्कर्ष)

आम आदमी को अर्जित करनी पड़ती है, राजभाषा 
जैसे कमाता है वह दाल-रोटी, माह की रोजी... बमुश्किल
यद्यपि उसकी सभी अभिव्यक्तियाँ और प्रतिक्रियाएँ
राज भाषा की मोहताज नहीं होतीं... बिल्कुल नहीं
आम आदमी राजभाषा में निरीह चौपाया होता है
जो उसकी वर्तनी की, विशिष्टार्थों की फांस में
उलझ जाता है, और फडफडाता रहता है...
सरकारें राजभाषा की चापलूस और पैरोकार 
दोनों हो सकती हैं,
लेकिन आम आदमी चाहे तो राजभाषा नहीं बरतता

अपनी भाषा में आम आदमी लड़ाकू होता है
बेहद बहादुर... 
अपनी भाषा में वह आपको अगर प्यार कर सकता है,
आपको नंगा भी कर सकता है 
और आप उसका बाल भी बांका नहीं कर सकते !
अपनी भाषा में आम आदमी अपनी ज़मीन, अपनी जमीर के
बहुत करीब होता है... 
अपनी भाषा में आम आदमी
आदमी बनता है, आदमी तैयार करता है
आदमियत की ज़मीं तैयार करता है...

आम आदमी और राजभाषा का रिश्ता
घोड़े और लगाम का रिश्ता है

आम भाषा धान की बाली है
हवलदार की गाली है
पगड़ी है, धोती है, औजार है, पसीना है...
मिटटी है, दाना है...

राज भाषा गमले की बोंजाई है,
आलों में कैद मोदी-गदराई जिल्दें हैं...
राजमार्ग की चुंधियाती हुई नियोन की बत्तियाँ हैं...

ज्यादा बार आम आदमी दुहाई देता हुआ निरीह नजर आता है...
कई बार वह बेचारा कर दिया गया होता है
और अपनी भाषा के साथ अपनी अस्मिता के लिए रिरियाता है...

लेकिन फिर एक सुकून मिलता है कि
राजभाषा में गुर्राती हुई आवाजों 
और मोहरों की तरह जबरदस्ती चस्पां किये गए 
फैसलों के खिलाफ़
वह आपने तरीके से विद्रोह कर जाता है...
कि वह राजभाषा को 
स्कूली बस्तों, इश्तिहारों, आवेदन पत्रों,
सरकारी दफ्तरों और दीवानी कचहरी के अहातों...
के बाहर 
अपने गमछे से धूल की मानिंद झाडकर
आगे बढ़ जाता है.

१८/२३-०६-२०१०

सोमवार, 21 जून 2010

विपरीत यात्रा

मृत्यु से जन्म के बीच
एक उलटी यात्रा करना चाहता हूँ
वापस उन्हीं पद्चापों को अनुसरित करता
फिरता हुआ...
घड़ी को चकमा देकर,
समय के गर्भ में जाना चाहता हूँ,

होना चाहता हूँ
फिर प्रौढ़, युवा, बाल...
चाहता हूँ लेट जाना...
मुझे माँ की उष्म गोद में निश्चिन्त और निसंताप...
समर्पित होकर खो जाना...
प्रेयसी की कोमल कसती बाँहों के घेरे में चुपचाप
होना एकाकार ...
पत्नी की छाती में निर्विकार

बचपन की गलियों में बेफ़िक्र घूमना चाहता हूँ
कंचे या क्रिकेट खेलते,
मीना बाजारकी रौनक में झूला झूलते...
मस्ती में जीना चाहता हूँ...
उस मौज को

चला जाना चाहता हूँ... समय के सारे पहरे तोड़ कर अनायास ही
पीछे, पीछे, तारीखों में बहुत पीछे...
और भाग कर फिर से माँ से लिपट जाना चाहता हूँ...
अपने सारे संताप, सभी निराशाएँ, सब विफलताएं...
मिटा देना चाहता हूँ...

चूक जाने से पहले पूरी उत्तेजना में भरकर
एक बार अपने पुरे वजूद के साथ
पत्नी को चूमना चाहता हूँ
और कहना चाहता हूँ अस्फुट आवाज़ में
कि, तुमने मेरी जिंदगी को सिंदूर की तरह निभाया...

भूगोल की दूरियों से
या समय की सुईयों से
नहीं नापी जा सकती
मेरी विपरीत यात्रा,
माँ तक...
प्रेयसी तक...
पत्नी तक...
ये मेरी देहातीत से फिर देह होने की यात्रा
क्योंकि मैं,

माँ के वक्ष से पहला आहार पाने से लेकर
पत्नी से सहवास की जैविक परम संतुष्टि तक...
मेरी जिंदगी के कुछ बेहद, बेहद निजी अर्थों को फिर से
उन्माद में लबरेज हो,
समझना चाहता हूँ...
दार्शनिक हुए बिना भोग लेना चाहता हूँ...
फिर कोई नया जन्म लेने से पहले !

बहुत ज्यादा हँसने वाली लड़कियाँ

बहुत ज्यादा हँसने वाली लड़कियाँ
दरअसल खुश रहने का भ्रम देने वाली लड़कियाँ होती हैं...
हम नंगी आँखों से नहीं देख पाते
परत के नीचे छिपाने की उनकी जोरदार कोशिश
के कारण
हँसी की मोटी गर्द के नीचे इकठ्ठा उनका कोई दुःख
नहीं समझते या समझना चाहते कि
हंसने, बेतरतीब हंसने, लगातार-बेहिसाब हंसने...
के भीतर किस खूब तरीके से
अपना दुःख छुपा ले जाती लड़कियाँ...
...यक़ीनन बहुत बड़ी कलाकार होती हैं.

या तो हमें उनकी हँसी से रश्क होता है,
या गुस्सा आता है, या
यही कि हम नहीं सोचना चाहते
लफंगी लगने की हद तक...
हँसती हुई लड़कियों के बारे में नैतिक होकर
हमें तो सिर्फ़ उनकी हँसी से मतलब होता है
इसलिए सिर्फ़ भली लगती हैं,
बहुत ज्यादा हँसती हुई लड़कियाँ.     

बहुत ज्यादा हँसती हुई लड़कियाँ 
ताली बजा-बजा कर हँसती हुई लड़कियाँ,
कभी दुपट्टे की ओट से हँसती हुईं,
कभी सरे-राह मार ठहाका हँसती हुईं...
साझा नहीं करतीं
अपनी धडकनों में बजते दुःखों को
वह हंसतीं हैं...
कि हँसने की मजबूरी से लाचार
निबटाते हुए दैनिक क्रियाकलाप... हँसते-हँसते
दिन गुजारा करती हैं

अगर कभी हँसी रुक जाती है
आसपास के कई लोग कई तरह से, और के
सवाल करते हैं...
क्या राज है उनके गुमसुम होने का
कोंच-कोंच कर पूछते हैं... 
खुलेआम और अचानक उदास होना लड़कियों के लिए कुफ़्र है,
दुर्घटना है... इल्जाम है...
उदास लड़कियाँ भी बदनाम हो जाती हैं...
जवाबदेह हो जाती हैं...!

इसलिए रोने से बचने की कोशिश में ही
हँसती हैं लड़कियाँ 
बहुत ज्यादा हँसती हैं लड़कियाँ...    

शनिवार, 19 जून 2010

कोई किसी के भीतर नहीं जीता

हमारे लिए दूसरे का दुःख
सिर्फ़ एक सूचना होती है...
अपने से परे का यथार्थ हमारा नहीं होता
इसलिए तदनुभूति कोरी गप्प है...
किस भी समय हम दूसरे में नहीं जी सकते
या ऐसा बहुत कम होता है
जब हम इस पर शिद्दत से सोचते हैं और
सफल भी होते हैं...!
हर दर्द-
हर टीस-
हार चुभन-
हर बार सिर्फ़
महसूस की जाती है... सिर्फ़ उसको जो
उसे भोग रहा होता है...
अकेला और मौलिक तौर पर
उसके बाहर सिर्फ़ लफ्फाज...बयानबाजियां...
सिर्फ़ कोरी सूचनायें... !  
इन्हीं कोरी सूचनाओं पर आधारित संवेदनशीलता और भी
तकलीफ़देह होती है
दोनों तरफ के लोगों के लिए...

शुक्रवार, 18 जून 2010

मेरी जिंदगी में भी आई लड़कियाँ

मेरी जिंदगी में भी आई लड़कियाँ
जैसे खिड़की खोलते ही आती है ताजी हवा
जैसे बारिश की रातों में चाँद पर
आ जाते हैं हलके बादल,
आती है सुबह, घास पर ओस की बूंदें...
जैसे आती है बारिश, ठण्ड और गर्मी...
जैसे, आना होता है एक संभाव्य या निश्चितता
ऐसे ही आयीं लड़कियाँ...

कुछ भी नहीं था
तयशुदा,
सिवाए वादे किये जाने
और वादों को याद रखने के...
और बिना तय किये ही टूटते रहे वादे...
बावजूद इसके, मेरी वफ़ा किसी चमत्कार से हथियातीं
अपनी मासूमियत से मेरा भरोसा लूटती लडकियाँ...
और एक जिद की मानिंद मैं प्यार करता उनसे


हलके रंगों में हम ढूंढते रहे
आपस की वचनबद्धता...
फूलों और गंध के बीच
हवा की जिम्मेदारी...
कुछ ऐसे ही ढूँढना था
हमें अपने मिलने और साथ होने का सबब
फिर किसी रोज
हम बिछुड़ते थे अजनबियों की तरह
एक दूसरे को भविष्य की शुभकामनायें देते हुए...
एकदम निष्पाप बन जाते हुए...

वसंत के ठीक पहले आती रहीं लड़कियाँ
और पतझड़ से ऐन पहले विदा हो जाती लड़कियाँ...
जैसे किसी फ़िल्मी पटकथा में ऐसा ही लिखा गया हो !

यादों के गुब्बार छोडती लड़कियों का
मेरे इतिहास से इतना ही बाबस्ता रहा...
कि उनकी भूमिका सिर्फ़ यादें उत्पादित करना था...
मेरी शक्ल पर गमज़दा मुखौटे चढ़ाती लड़कियाँ
मुझे खुश रहने देने की खुशफहमियां देने वाली वो लड़कियाँ,
मेरी आत्मा को जज्बातों की प्रयोगशाला में तब्दील करने वाली लड़कियाँ
गैर-पते की चिठ्ठियों की तरह
डाक-खाने में हीं गुम हो गयीं...

चूँकि हमारे रिश्तों में ईमानदार होना कोई नियम नहीं था,
अपना ईमान साबुत लेकर चली गयीं लड़कियाँ...

शनिवार, 5 जून 2010

प्रागैतिहासिक दौर की किताबें

नैसर्गिक जिज्ञासा
के वशीभूत,
एक बहुत ही पुरानी
प्रागैतिहासिक दौर की हाथ आई
किताब के जर्जर पन्ने पलटते हुए पाया
कि उसके सारे शब्द मर चुके थे
और जो अक्षर थे कभी
अब झड रहे थे
उन पीले पन्नों से बासी विचारों की
सडांध-बास आ रही थी...

चकित हुआ
और दूसरे ही पल
समझ भी गया
कि क्यों मकान के
सबसे पवित्र आले में
संभालकर रखी होती हैं ये किताबें
कि क्यों बड़े जतन से
बांचते हैं
इस तरह की किताबें--
पगड़ी-तिलक-मुच्छड़
लुच्चे फर्माबदार
लकीरों के टुच्चे पहरेदार
मात्र अपने लिंग के ही प्रति वफादार...

ऐसी किताबें,
जिनमें खालिस मुर्दा अर्थों
और अप्रासंगिकता से अधिक कुछ नहीं है
दुनिया जिन्हें अपनी
सहूलियत के हिसाब से
व्याख्यायित करती है...
तुम्हारी जाति के वास्ते
सबसे जरूरी घोषित करती है...
जो इस सदी में
बेहद गैर-जरूरी काम है,
मगर उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है.

ये किताबें,
हर तनी हुई मुट्ठी, उठे हुए सरों को
बर्दाश्त न करने का गुर सिखाती हैं...
इन किताबों से
निर्धारित होने वाले षड्यंत्र
मुझे और तुम्हें
लिंगविहीन-विचारहीन-दृष्टिहीन-रीढ़हीन
बनाते चलते हैं...

मैं उस किताब को
पेशाबघर की दीवार के पीछे
गाड़ के आ गया हूँ...

मित्रो मरजानी - कृष्णा सोबती

समित्रावंती (मित्रो), आधुनिक स्त्री के उस दमित रूप की मुखर अभिव्यक्ति, जिसे पहले सिर्फ छिपाया गया. जब भी मित्रो जैसी औरत से इस समाज का बावस्ता हुआ होगा, खुद को या उसे ही छुपाता रहा होगा...
मित्रो पुरुषवादी अंह और संस्कारों के जड़ और कुंद मर्यादाओं के पाक दरवाजे पर बार-बार ठोकर मारती रहती है, ताकि ताजी बयार, मुक्ति की हवा भीतर आ सके... खुद के भीतर... और तब मित्रो भरपूर सांस भरेगी...
मित्रो की "मुक्ति" व्याभिचार की श्रेणी में रख दी जायेगी, लेकिन सवाल ये है कि मित्रों की अतृप्त कामनाओं की तुष्टि कौन करता है... उसे उसकी कामना की आग में झुलसने को किसने छोड़ दिया है? उसी मर्द ने ही ना... 
और फिर गलत क्या है, सही क्या है? कौन करेगा इसका निर्धारण? जो करेगा, क्या वो अपनी अंतरात्मा के साथ इंसाफ करते हुए कह सकता है कि उसने वो सब नहीं किया, करने को चाहा तक नहीं, जिसे वह "गलत" परिभाषित कर रहा है?
मित्रों की कामुकता नैसर्गिक है, वह जितना उसके साथ है, उतना ही मेरे और आपके साथ भी सत्य है... सिर्फ कोरी मर्यादा 
के भारी-भरकम आदर्श के नीचे हम, खासकर औरतें, उसे जीवन भर छुपाने-दबाने को मजबूर हैं... 
मित्रो नैतिकता, रूढ़ी की जर्द दीवारों को लांघने की कोशिश करती है, उसकी बोली-लहजा, कामनाएँ... अपना अधिकार पा लिया अंततः, लेकिन वह किसी अंतर्द्वंद से घिरी नहीं रहती कभी. वह स्पष्टवादी है... भाषा में, व्यव्हार में, अभिव्यक्ति में... 
मित्रो एक सच्चाई है, जीती-जागती, हाड़-मांस की बनी हुई सच्चाई... मर्यादा-पुरुषोत्तमों के वास्ते एक कड़वी सच्चाई भी...
मित्रो सदियों से घुटकर अपनी ही यौनिकता को जब्त करती, संयम के घूँघट और बुर्कों में दम तोड़ती मुक्तिकामी स्त्री-वर्ग की उद्दाम लालसा की प्रतीक है... ये लालसा अनर्गल हो ही नहीं सकती...

केवल एक ही बैठक में पूरी पढ़ लिए जाने लायक कृति है - "मित्रो मरजानी"... और फिर ढेर सारे सवाल प्रतिध्वनित होते रहते हैं आपके भीतर देर तक, लेकिन उनके उत्तर भी पीछे-पीछे आते हैं...
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