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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

सुश्री अरुंधती राय की बात...

तरस आता है ऐसे राष्ट्र पर जो अपने लेखकों को सच कहने से रोकता हो. मैं यह श्रीनगर, कश्मीर से लिख रही हूं। आज सुबह के अखबार कह रहे हैं कि कश्मीर पर हाल ही में सार्वजनिक सभाओं में दिए गए बयानों के लिए मुझे देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया जा सकता है। मैंने सिर्फ वही कहा है जो यहां के लाखों लोग रोजाना कहते हैं। मैंने सिर्फ वही कहा है जो मैं और मुझ जैसे अन्य लेखक सालों से लिखते और कहते आ रहे हैं। वे लोग जिन्होंने मेरे भाषणों की स्क्रिप्ट को पढऩे की जहमत उठाई होगी, देख सकते हैं कि वे मूलत: न्याय की मांग हैं।
मैंने कश्मीर के उन लोगों की आजादी की बात कि है जो दुनिया में सेना के सबसे खौफनाक कब्जे में जी रहे हैं, मैंने उन कश्मीरी पंडितों की बात की है जिन्हें अपनी मातृभूति से खदेड़ दिए जाने त्रासदी को झेलना पड़ रहा है, कश्मीर में शहीद हुए उन दलित सिपाहियों की बात की है जिनकी कब्रों को मैंने कुडलूर के गांवों में कूड़ के ढेर से पटी हुई देखा है। मैंने भारत के उन गरीब लोगों की बात की है जो कश्मीर पर कब्जे की वास्तविक कीमत चुकाते हैं और जो अब पुलिस राज के आतंक में जीना सीख रहे हैं। कल मैं दक्षिण कश्मीर में सेब उगाने वाले कस्बे सोपियां गई थी। यह पिछले साल आसिया और नीलोफर नाम की युवतियों के बर्बर बलात्कार और कत्ल के बाद 47 दिन तक बंद रहा था। इन के शव घर के करीब एक छिछले नाले में मिले थे और जिनके कातिलों को आज तक सजा नहीं मिली है।
मैंने निलोफर के पति और आसिया के भाई शकील से मुलाकात की। हम गुस्से और गम से पगलाए उन लोगों के साथ एक घेरे में बैठे जो यह उम्मीद छोड़ चुके हैं कि उन्हें भारत से इन्साफ मिलेगा और अब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि सिर्फ आजादी ही उनकी अंतिम उम्मीद है। यही उन्हें न्याय दिलाने की आखिरी उम्मीद है। मैं उन युवा पत्थर फेंकनेवालों से भी मिली जिनकी आंखों में गोलियां लगी हैं। मैंने एक युवक के साथ यात्रा की जिसने बताया कि अनंतनाग जिले के उसके तीन किशोर दोस्तों को हिरासत में लिया गया और उनकी अंगुलियों के नाखून उखाड़ लिए गए। पत्थर फेंकने की सजा के बतौर।
अखबारों में कुछ लोगों ने मुझ पर भारत तोडऩे की मंशा से नफरत भरे भाषण देने के आरोप लगाए हैं। उल्टा मैंने जो कहा वह लगाव और गर्व के कारण है। यह इसलिए कहा है कि मैं नहीं चाहती की लोग मारे जाएं, उनके साथ बलात्कार हो, उन्हें जेलों में ठूंसा जाए या उनके नाखूनों को जबरदस्ती यह कहलाने के लिए कि वे हिंदुस्तानी हैं, उखाड़ लिया जाए। यह इसलिए कहा कि मैं ऐसे समाज में रहूं जो एक न्याय संगत समाज हो।
तरस आता है ऐसे राष्ट्र पर जो अपने लेखकों को सच कहने से रोकता हो। तरस आता है उस देश पर जहां न्याय की मांग करने वालों को जेल में ठूंसने की जरूरत पड़ती हो, जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, कत्लेआम करनेवाले, कारपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीब से गरीब का खून पीनेवाले खुलेआम घूमते हैं।


-अरुंधति रॉय
("समयांतर" से साभार)

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

प्रगतिशील लेखक संघ, घाटशिला

प्रिय साथियों,

हम युवा साथी प्रगतिशील लेखक संघ की घाटशिला इकाई को दिनांक २६ दिसंबर, २०१० रविवार को इसकी प्रथम बैठक और गोष्ठी (प्रस्तावित विषय : 'समकालीन कहानी की धारा') के माध्यम से अस्तीत्व में लाने जा रहे हैं । 

घाटशिला जमशेदपुर से ५० कि.मी. दक्षिण-पूर्व, राष्ट्रीय राजमार्ग ३३ व स्वर्णरेखा नदी के तट पर बसा अत्यंत रमणीक और प्राकृतिक सुषमा समृद्ध कस्बा है, जो तांबें कारखाने के लिए जाना जाता है । किंतु यह बंगला भाषा के प्रखयात लेखक विभूति भूषण बंदोपाध्याय के निवास स्थल - गौरी कुंज - के लिए भी विशेषकर पूर्वांचल के साहित्यानुरागियों में प्रसिद्ध है ।
उपरोक्त आयोजन उक्त तिथि को स्वर्णरेखा नदी के रमणीक तट पर होना तय है । 

-शेखर मल्लिक

प्रगतिशील लेखक संघ,
घाटशिला ।

मोबाईल - ०९८५२७१५९२४
ई-मेल - shekharmallick@yahoo.com 
फेसबुक पर - Shekhar Mallick | Facebook
प्रगतिशील लेखक संघ के ब्लॉग पर - http://pwaindia.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

रविवार, 19 दिसंबर 2010

और वह प्रकट में कहीं नहीं होती !

पूरा ब्यौरा इस तरह है...

समूचे आकाश पर
चमकीले सफ़ेद बादल
फैले थे... क्षितिज के ओर-छोर
साँसें तेज-तेज चल रही थीं और
दिन रोजाना की तरह पल-दर-पल
बीतता जा रहा था...
बहुत सारे घटितों को इतिहास में दर्ज़ करता हुआ

कोई संवाद
लगातार अपने ही अंतस की सुंरगों में
गूंजता जा रहा था... जिसका अर्थबोध
इसलिए नहीं हो पा रहा था
कि अभी इसकी भाषा नए सिरे से चिन्हित की जानी बाकि थी...
क्योंकि सारे शब्दकोशों से आम आदमी की
शब्दावलियाँ सेंसर कर दी गयीं थी,
इसे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' से संभावित आसन्न खतरे
के मद्देनज़र किया गया था !

आदमी ना प्रेम को कह सकता था, ना पीड़ा को...!
तो विरोध किस प्रकार करता ?
मूक विरोध तो भोंथरे औजार के समान हुआ !
और इसलिए चोटिल आदमी को हाशिए पर डालने की प्रथा
कई दिनों से चालू थी...
व्यवस्था और सत्ता
के वास्ते
आदमी का मुखर होना बड़ा खतरनाक जो था !

वह एक परछाई सी थी, जिसमें मैं सिमटता जा रहा था...
मेरे होने को एक साथ स्वीकारता
और नकारता भी, यह समय...
तेजी से अतीत में ढलता जा रहा था
एक रौ में...
दहकते हुए सीने और
यहाँ से हजारों मील दूर समुद्र की लहरों में
एक ही लय थी !

मैंने बाग़ की झाड़ी में से
उसे ढूँढ निकला था
जो कल की मुलाकात के बाद
फूल बनकर झड गया था...
और अक्सर ऐसा ही होता था...
और मैं अक्सर उस क्षण के बाद सोचता था इस पर...
मेरे पाने और पाकर खोने का पूरा 'प्रमेय' यही है !

इन सब ब्यौरों में
कहीं उसका जिक्र साफ़-साफ़ नहीं है
ठीक इसी तरह कि,
मेरे होने के ठीक बीचों-बीच उसका होना भी
स्पष्ट नहीं है ! पर वास्तव में वो तो है ही...
मेरे ही भूगोल में छिपा हुआ...!

कई सारी सच्चाईयों के बीच
कोई बात नए तरीके से कहने के लिए
चेहरे पर तनाव का निशान बनना अपरिहार्य होता है !
बिल्कुल वैसे ही जैसे
मेरे और उसके संबंधों का
ब्यौरा लिखने के लिए
एक अव्यक्त वेदना की
मरणान्तक टीस सहनी होती है... बार-बार
और वह प्रकट में कहीं नहीं होती !

यहाँ "वह" का तात्पर्य -- प्रेम या पीड़ा या दोनों--
आप स्वयं लगा लें, इसकी छूट है !
और यह भी जानने की, समझने की, कोशिश करें
कि जो भी था, ऐसा क्यों था ?

मैंने बस अपना ब्यौरा समेट लिया है !

बुधवार, 24 नवंबर 2010

मेरी कविता में वह सब क्यों नहीं था

क्या ऐसा नहीं होगा कि, कल को आप लोग पूछेंगे -
तुम्हारी कविता में फूल क्यों नहीं थे... ?
बादल और हरियाली...
आईने और सुंदरता...
उन तमाम मादक गंधों की बातें और मुलायम देह...
मांसल आसक्ति और चुम्बन-आलिंगन...
आदि-आदि...
गायब क्यों थे ?

लड़कियाँ थीं, मगर...
बारिश थी, मगर...
खेत और नदी थे मगर...
चिड़ियाँ थीं, मगर...
बदन की जुम्बिशें थीं, मगर...
प्यार भी 'वैसा' नहीं था... !
कुछ भी तुमने 'वैसा' नहीं रखा था...
जो हमारी सोच, स्वाद और आदतों में शुमार रहा आया था...

ऐसा क्यों था...
शायद इसको समझाने के लिए
मेरी वही कविता नाकाफी
होते हुए भी
बहुत मजबूत 'स्टेटमेंट' होगी
कि मेरी कविता के समय में
यह सब अप्रत्याशित रूप् से नहीं
बल्कि एक तय साजिश के तहत
कारतूस, बारूद, खंजर, त्रिशूल, चाकू-गुप्ती,
भाला और भाषा, रस्सी-फंदा, ज़हर-गैस, पूँजी-नीति, विकास का मॉडल...
सांठ-गाँठ, दलाली, बेहयाई और भ्रम इत्यादि के पैदा किये हुए
दलदल की तलछट में चेप दिए गए थे...

मैं इन्हें (उपरोक्त प्रथम सूची के तत्वों, जिनके नहीं होने के लिए आप भविष्य में शिकायत करेंगे)
कविता में, जितनी तड़प, खुशी और शिद्दत से देखना चाहता था,
हर बार उपरोक्त दूसरी सूची के तत्वों की अधिक तीव्रतर उपस्थिति के कारण
बेबस, विकल्पहीन और मायूस हो जाता था...

इसलिए क्षमा करें... कि ,
मैं अपनी कविता में कोई भी सुन्दर चित्र टांक नहीं पाया !
अक्सर सत्य के आवेग से मेरी उंगलियाँ थरथराती थीं और
कल्पनाशीलता अनुर्वर हो गयी थी...
जो सच था, मेरी जमीर के सामने,
बिना लाग-लपेट के बयान हो गया...

बदहवास भागता आदमी हर बार...
ठीक मेरी नाक की सीध में आ जाता था... बिलबिलाकर मर जाता था...
अपने हक़ को भीख की शैली में माँगता हुआ और
मैं फूल-पत्ती-मादा
के सारे प्रचलित मुहावरों और सन्दर्भों से कट जाता था !

यकीन मानिये, यह केवल मेरा नहीं, उस समय...
मेरे सभी समकालीनों का समान साहित्यिक प्रारब्ध था...

रविवार, 21 नवंबर 2010

घाव

एक घाव है...
मारे डर के,
जिसका दर्द मैं दिमाग के हाशिए पर डालना चाहता हूँ
और गौर-तलब है कि, ऐसा करने की कोई राह भी नहीं सूझती...
वह घाव बदन के उस हिस्से में खुदा हुआ है
जिसके ठीक नीचे का अवयव
रक्त को पूरे शरीर में दौडाते रहने की क्रिया में संलग्न है
और बिना पूछे धडकता रहता है...ढीठ सा...
जब मैं नींद में शिथिल होऊँ... तब भी !
दिमाग के साथ यही तो खटता रहता है...
और सबसे ज्यादा मार इसी को लगती है... अंदरूनी तौर पर...

यह जिस घाव की मैं बात
(बगैर यह फ़िक्र किये कि यह किस्सा आपको उबाऊ भी लग सकता है)
कर रहा हूँ...
यूँ ही अचानक किसी चोट से पैदा नहीं हुआ !
यह घाव चेतना के रंदे से अपने आप को तराशे जाते समय घटित हुआ...
और बना हुआ है तब से, या कहूँ और गहरा, और फैला है तब से
पूरे मेरे वजूद में फैल गया है...रिसता - टीसता हुआ,
जिसका केन्द्र कहाँ है, यह ऊपर ही उल्लेख कर चुका हूँ !

सारे बौद्धिक वैद्य लक्षण सुन लें...
इस घाव की टीस तब उभर जाती है...
जब अख़बारों में हत्या होती है, और बलात्कार के किस्से
'चाय-बिस्कुट' के साथ निगले जाते हैं...
फिर जब सारे संसाधन पूँजी की थैली के मालिकों-वारिसों-दलालों
के पेट में जमा कर लिए जाते हैं और बाकि अधिकांश लोग
भूख जैसी संगीन बीमारी से सड़क पर "ऑफ द रिकॉर्ड" मर जाते हैं
पेट को हाथ से भींचे हुए...मरते हुए... उस दर्द को घटा पाने के इरादे से, मगर नाकाम !
और खबरनवीसों को इसकी "खबर" नहीं होती ! चूँकि यह मसला 'बाजारू' नहीं होता है !
तब जब स्कूल जाती या कॉलेज में चंद दिनों पहले दाखिल हुईं लड़कियाँ
अचानक मंडपों में
किसी औजार, करेंसी नोट के पुलिंदे या गंवार बैल के साथ
मुंडी झुकाए गिन-गिन कर सात चक्कर लगाती हुई पाई जाती हैं
और तब जब मरता हुआ आदमी आज का सबसे बड़ा कमाऊ विज्ञापन
बन कर खबरिया चैनलों पर 'चौबीस गुना सात' की पूरी अवधी में चिपका रहता है
और तमाम शर्म हमारी पेंदी से टपक चुके होते हैं...

और तब...और तब...और तब... गिनाने को कई सारे मौके हैं...
यानि इस घाव की टीस का स्थायीकरण हो गया है !

कुछ और लोग इस या इसी तरह के घावों को चाटते, सहलाते या
'तमगे' की तरह फक्र से टांगे हुए
या भिखारी की हथेली की तरह दयनीयता का रूपक बनाते पाए जा सकते हैं...
वह हर तरह की जिम्मेदारी की हद से बाहर के होते हैं...
और महज एक सफल या महत्वाकांक्षी उद्यमी की तरह इसका विज्ञापन करते रहते हैं...
वह और बात है कि मैं उनकी जात-बिरादरी से बाहर हूँ... और गनीमत है !

घाव में इकठ्ठा हुआ मवाद कभी-कभी उछल कर मुँह में भी भर जाता है
और मैं उसे थूक कर उससे कुछ देर के लिए मुक्त हुआ मान लेता हूँ...
मगर फिर वह कसैला-कडुवा स्वाद मेरे स्नायुओं में बहते रक्त में मिल जाता है
और 'नमक' में बदल जाता है...जो बे-ईमान हो नहीं सकने से मजबूर है !

ऐसे समय में मैं कुछ ज्यादा ही चौकन्ना हो जाता हूँ... चुपचाप बकता रहता हूँ...
और उँगलियों पर घड़ी की तरह समय काटने लगता हूँ...

मैं भी तो इस समय इस घाव की व्याख्या करते हुए
शाब्दिक कलाबाजी करते हुए आखिर एक खेल ही तो खेल रहा हूँ...
जबकि भरसक इससे बचने की कोशिशें की हैं...
उफ़, कितना हिंस्र हो गया हूँ मैं...
कितना बर्बर हो गया हूँ... जिसे
सभ्यता की परिभाषा गढ़ने वाले
मस्तिष्कों के भ्रम की आड़ में विकसित किया गया है... यह भी एक किस्म की
शराफत के रैपर में लिपटी चालाकी है...
और इसलिए विपणन का इरादा नहीं होने पर भी... कहीं बिक भी जा सकता हूँ... इन शब्दों सहित मैं !

लो, इतना कुछ बताते-सुनाते-कुरेदते...
इस दौरान कब फिर से वह घाव टीसने लगा है...
और मुझे मालूम हैं, फिर किसी गडबड से उपजा है यह दर्द,
जिसे दिमाग के हाशिए पर डालना है मुझे...
यह दर्द, जो कतई किसी किस्म की मक्कारी नहीं है !

बुधवार, 10 नवंबर 2010

"तरबूज का बीज" के बहाने नयी दासता का आख्यान

"परिकथा", सितम्बर-अक्टूबर, २०१० में अरुण कुमार 'असफल' की लंबी कहानी - "तरबूज का बीज" कल और आज की सिटिंग में पढकर पूरी की... यह कहानी समकालीन कहानियों में अदभुत है... एक मिथकीय अहसास अथवा रूपक के द्वारा लेखक समकालीन परिस्थितियों का अत्यंततीखा और संश्लिस्ट चित्र उपस्थित करता है. यहाँ किसानों की आत्महत्या प्रसंग... उसकी उर्जा और क्षमता का बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नृसंश दोहन... नए बनते परिवेश में हताश किसान का अलग ढंग से मजदूर बनते जाना, जिसका खेत और श्रम पेशगी देकर खरीद लिया जा रहा है... अपने रक्त से सींची धरती से उपजे फसल के प्रति किसान की सहज आत्मीयता और पागलपन की हद तक ममता... उसका सशरीर गलते चले जाना, इस भ्रम में कि इस लाभ से कुछ सार्थकता उसके हिस्से भी आएगी, जिससे वह कर्ज से मुक्त हो सकेगा, वह पूंजीपतियों के ही हाथों की कठपुतली भर बन जाता है... जिसका अपने ही खेत के सामने मजूर की हालत में हाथ जोड़कर 'बीज वाले' ताकतवर वर्ग के सामने निरीह खड़ा हो जाना, मानों खेत के असल मालिक वे हों... वह आधुनिक दौर का 'बंधुआ मजूर' ! और फिर भी अंतत: एक दारूण अंत... !!!
'असफल' जी ने 'बीज' के रूपक के माध्यम से आदमी को उत्तर आधुनिक इस काल-खंड में नए पैदा हुए बुजुर्वा वर्ग के लिए 'मनुष्य' से मुनाफा का फसल देने वाले "बीज" में रूपांतरित होते दिखाया है, जो वाकई रोंगटे खड़े कर देता है... इस कहानी से गुजरना बहुत से अलग-अलग कोणों से एक भयावह वस्तुस्थिति को देखना है... मुझे लग रहा है, यह कहानी लंबे समय तक याद की जायेगी... भाषा, शिल्प और अंतर्वस्तु... तीनों क्षेत्रों में गजब की निर्मिति और प्रस्तुति... यह अनयास ही नहीं है कि 'गणेशी के बाबा' द्वारा उगाए गए तरबूज का रस "खून" के जैसा है... तकनिकी युग में आदमी महज एक मुनाफा देने वाली मशीनी या श्रमिकीय इकाई में तब्दील है, जिसमें जाहिर है उसका रक्त मिला हुआ है... जिसे वह स्वयं सह नहीं पाता...
 'असफल' जी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने आज के दौर में निश्चय ही पाठक को झकझोर देने में सक्षम यह कहानी लिखी...  

१०-११-२०१०, मऊभण्डार, घाटशिला.

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

घर

बहुत बार सोचा है,
या ज्यादे साफ़ कहा जाय, तो पूछा है अपने आप से...
और जिस जगह रात बिताता रहा हूँ अक्सर
दुनिया-जहान के सारे खौफ़ से होकर बेलौस,
उस जगह से भी
पूछा है,
घर क्या होता है, कैसा होता है ?...

तो...
प्राय: नेपथ्य से जवाब आता है...
घर वही जिसकी दीवारें मुहब्ब्त के ताप से लीपी हुईं
और जिसकी छत पर रोज सुबह मुहब्बत की धूप फैली हुईं होती हो !
हवा में नमीं और चाशनी सी खुशबू महसूस करो और
जहाँ सुकून के भाप भरे चश्मे की सतह सा फर्श हो...
 
अगर ऐसा ना हो, और
अगर दरवाजे पर हर शाम
अनकही सी फ़िक्र आँखों में समेटे एक इंतजार ना हो...
गले लग जाने की बेसुध तड़प को थामे कई लम्हों से
देर से आने की शिकायत करते हुए झिडकी दे और तुम
देर तक हँसते रहो उसे मनाने का उपक्रम करते हुए

फिर कहीं से भी,
कभी भी तुम लौटो...
"घर" नहीं लौटते... बस एक ठिकाने पर लौटते हो...!

वह होता है घर जहाँ, रोटियाँ तवे पर नहीं
हथेलियों की गर्माहट से पकती हैं...
दुधिया आँचल चेहरा ढांप लेता है और
नींद की शुरुआत हो जाती है थकी पलकों के नीचे
जहाँ की रसोई भी उतनी ही मादक और कमनीय होती है
जितनी बिस्तर की आदम, पवित्र गंध !
जिसमें कमल का एक फूल खिल जाता है हर दफा
सुबह गुसलघर की बौछार के नीचे से धुल कर
नया-नया और ताजा-ताजा...
जहाँ रात की खामोशी में
बिस्तरों के कोनों में उलझी-झूलती
जैसे घंटियों की कर्णप्रिय आवाजें
नशे की हद तक आलिंगन का जायका मीठा बना देती हैं...
घर वही जहाँ कसाव होता है...अपनेपन का हर सुबह...
और जहाँ के पानी, आग और धुएँ का स्वाद
हरदम पीछे चलता है

घर जो तुम्हारी हर हार को अपने आगोश में छिपा कर
फिर भी तुम्हें दुलारता रहता है, हौसला देता रहता है...
दुनिया से बार-बार लड़ने के लिए जज्बा और इत्मीनान देता है
तुम कहीं से भी चोट खाकर आओ...
पुचकार कर तुम्हारे जख्मों पर कोमल फूँक मारता है...
घर !

जिसकी दीवारों और खिड़की-दरवाजों से भी
एक साँस भरता रिश्ता होता है...

घर तो यारों वह है
जो मुझ जैसे को बंजारा बनने नहीं देता !
मगर अब उसी खोये हुए "घर" को ढूँढता हूँ
घर में ही, जो अब मकाननुमा रह गया है...

सवाल करने को जैसे अभिशप्त हूँ, "मेरा घर कहाँ है ?"...    

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

पा सके जो राह-ए-इश्क में अपना अजीज मुकाम

पा सके जो राह-ए-इश्क में अपना अजीज मुकाम
करता हूँ यारों बार-बार बा-अदब उनका एहतराम

तबाह-ओ-क़त्ल भी हुए सरे-राह उनके वास्ते
और खुद ही पे आया अपनी बर्बादियों का इल्ज़ाम

अब तक तो ना हुई मयस्सर हमको वह
यकीं था कि मिलेंगे वफ़ा-ओ-उल्फत के जो पैगाम

जिन रास्तों पर खामोश वीरानियों का नूर था
चलते रहते थे खुशी-खुशी लेकर हम तेरा नाम

आगोश में लेकर तुम्हें ज़श्न-ए-वस्ल मनाते
क्या डराती जिंदगी, क्या करते कोई फ़िक्र-ए-अंजाम

गया वक्त वो सारे लम्हें गए दूर हमारी जानिब से
सोचते हैं अब क्या खामियाँ हमीं में थीं तमाम

रकीबों के शहर में घूमता हूँ तन्हा "शेखर"
जब से बदलते देखे हैं रिवाज़-ए-दोस्ती के आयाम
२८-१०-२०१०

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

पहले दिनों जैसा प्यार...

प्यार के शुरूआती दिनों को भरपूर जीओ दोस्त...
क्योंकि सिर्फ़ तब ही होता है,
रहता है पूरी तरह से,
ईमानदार प्यार...
सौ पैसा खांटी खुमार देता प्यार...
किसी बच्ची सा भोला और निश्छल प्यार...

जिसमें कौंधती है, प्यार करने वाले की आत्मा
और उसकी सच्चाई...
तुम्हारी फ़िक्र और परवाह वाकई सचमुच की होती है
तब, सचमुच जरा सी भी दूरी डरा देती है मन को
और बाँहों के घेरे का कसाव असली तड़प लिए होता है...
वह गर्मी भी खालिस होती है जो तपे हुए चेहरे,
सांसों और होठों से नुमांया होती है...
सारी प्रार्थनाएं सीधे कलेजे से निकलती हैं और
सबकुछ लुटाकर भी मजे में रहने वाली आस्था सच्ची होती है...

खेद है कि, फिर ऐसा रह नहीं जाता...
फिर तो सावन भी बरसता है, मगर उसकी आग महसूसती नहीं
साथ चलते हुए भी परछाइयाँ परस्पर लिपटती नहीं...
तुम्हें तड़प कर पुकारने वाली उस आवाज़ की आस में जिंदा रहते हो और
वही एक पुकार फिर आती नहीं...

फिर प्यार ना गाढ़ा, ना जुनूनी, ना विशुद्ध, ना गहरा,
ना किसी आवेग का रह जाता है !
मात्र एक खोखली उम्मीद की मानिंद...
जो एक-दूसरे से बमुश्किल निभ पाता है...!

प्यार को गुना-भाग, जोड़-घटाव...
किसी समीकरण में तौले जाने और
दुनियादार हो जाने से
पहले पूरी तरह से जी लो...
क्योंकि, फिर पलट कर नहीं आता है...
पहले दिनों जैसा प्यार...
फिर अपना-अपना कहते-कहते भी
अपना होने का भ्रम मात्र बनकर रह जाते हैं लोग...

फिर पूरी शिद्दत से
तुम उसी प्यार की कशिश को पाने के लिए
जुझने तो लगोगे...
मगर दोस्त... वह प्यार नहीं मिलेगा
ना फूलों और चाँद पर, ना भरी-पूरी रातों में, ना घर में, ना बगीचों में...
तलाशोगे अगर साथी की आँख में, चेहरे पर, उसकी बातों में...
और शारीरिक भाषा में... हताश होओगे यह पाकर कि
कोई गीली चीज दरम्यान से गायब है...
सिर्फ़ एक पथरीली सी हँसी है, जिसे तुम नहीं पहचानते और
बहुत सारा पानी सूख चुका है !

प्यार अक्सर दिन ढलते जाने पर
उपेक्षात्मक होता जाता है...
सैद्धांतिक रूप से तो...ठीक इसके उलट होना
और आदर्शवादी तौर पर...
ऐसा कतई नहीं होना... चाहिए...
मगर...
होता यही है...  

इस पर अफ़सोस करने की हालत में पहुँचने से पहले
खुलकर, डटकर... पूरी मौज के साथ
इस प्यार को जीयो मेरे दोस्त...!

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

लड़ाई

बहुत साफ़ नहीं कहा था उसने
कि लड़ाई में (अब) तुम भी हो...
यह जो चल रहा है, बकायदा एक जंग है...
और इसमें तुम भी
शामिल हो दिन रात की तरह
जिस जगह अभी मैं हूँ, बहुत जल्द तुम भी वहीँ होगे...
अब तक बेखबर थे... चोट खाते थे...
चोट करने वाले हाथों को पहचानते थे, तो...
अभी अपने औजार - हथियार सब
इकठ्ठे करो... अभी, बिल्कुल इसी समय...

ढोर भी अपने बचाव के लिए सींग मारता है...

लड़ाकू बन जाओ
तुम्हारे सामने विकल्पों की कोई तालिका
नहीं है
और इतनी मोहलत भी नहीं कि
तुम इस युद्ध से
परे कुछ और संभावनाओं को तलाशो...
युद्ध तुम पर सीधे-सीधे थोपा गया है...
और तुमको अपनी आत्मरक्षा का पूरा हक़ है !
क्योंकि डार्विन का सिद्धांत
इसी फलसफे पर था...कि,
वही बचेगा जो
लड़ाई लड़ने, लड़कर जीतने की
सामर्थ्य रखता होगा...

तुम उस तरह के हो जिनके पास
भूख सुलगते हुए अंगार की तरह है
सपने राख की सफेदी हैं
उम्मीदें बर्फ के गट्टे हैं
हरियाली तुम्हारे पैरों के नीचे से खींची जा रही है
और उजाले तुम्हारे आकाश से पोंछ डाले जा रहे हैं...
तुम जितनी दूर देख सकते हो-
समर की जमीन ही देख रहे हो...

तुम्हें हक़ के लिए
प्रेम के लिए और आदमी की तरह जी सकने के लिए,
दुःख जैसा कड़वा काढ़ा
हलक से उतारने के लिए
अपनी भावी पीढ़ियों के वास्ते
बेहतर धरती के लिए... लड़ना ही होगा...
लड़ने के लिए सारी ताकत और सारे इरादे
पुख्ता कर लो...
लड़ो... लड़ो बेदम होने तक
या फिर जीतने तक...

इतना साफ़ नहीं कहा था उसने
यह सब !
सिर्फ़ उसे उस बंद कमरे की तरफ
घसीटे जाते हुए देखकर हमारी चेतना में
एकाएक बिगड़ी हुई मशीन के शोर की तरह
घटने लगा... .खतरे की घंटी सा बजने लगा... यह सब...

कमरा, जो ठीक हमारे सामने था,
की मोटी दीवारों और
मज़बूत लोहे के दरवाजे के पीछे
आध - एक घंटे पहले लाया गया
वह इक्कीस-बाईस साल का लड़का
बुरी तरह पीटा जा रहा था
हम महसूस कर सकते थे कि
उसकी कमर और तलुवों पर
बहुत जोरों से डंडे मारे जा रहे होंगे
इस वक्त उसकी नाक से खून निकल रहा होगा
और बार-बार उसका सिर बालों से पकड़ कर
सीली दीवारों पर मारा जा रहा होगा...

शायद उसकी सब कराहें
अंतिम रूप से पूरी तरह से बंद हो जाने तक
वह इसी तरह बर्बरतापूर्ण ढंग से
पीटा जाने वाला था...

और कड़वी बात यह थी
कि, हममें से हरेक जानता था
कि उसने ऐसा कोई दोष नहीं किया है
कि उसे मार डालने तक
उसके हाथ पीछे बांधकर
नंगा करके, तेल चुपड़ी मोटी लाठियों,
सरकारियो कमरबंदों और घूंसों...
से उसे इतना मारा जाय... उसके नाखून उखाड़े जायं...
यौनांगों को क्षत-विक्षत किया जाय या...
गुदा में पेट्रोल डाला जाय...!

उसने सिर्फ़ इतना कहा था
कि वह उन आदमीनुमा लोगों का
सरमाया है, जिन्हें आदमी मानने
का कोई अधिनियम जारी नहीं हुआ है
जिनकी ज़मीन और जंगल
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अघोषित मिल्कियतें
बना देने की साजिशें रफ़्तार में हैं
जिनकी मिट्टी और पानी छीन गया है...
वह उनके लिए लड़ता है...

और इससे पहले कि वह
अपने कहे हुए की और अधिक व्याख्या करता,
तमाम तथ्यों और आंकड़ों से उसे साबित भी करता...
वह पकड़ा गया था...!

उसने यह सबकुछ बहुत चीख कर भी नहीं कहा था
हम फिर भी सुन पाए थे
हम वहाँ भीड़ की घेरेबंदी की शक्ल में मौजूद थे...

फिर इसके बाद उसकी आवाज हमको लगातार
सुनाई देती रही...
उसकी कराहों और मार की दहला देने वाली
तमाम आवाजों के बरक्स उसकी आवाज
आती रही...  
"लड़ाई में अब तुम भी हो..."  

वह नौसिखिया सा दिखता लड़का,
जिसकी अभी मूंछें तक कड़ी नहीं हुईं थी
मगर रीढ़ बेशक हो गयी होगी...
हम सिर्फ़ इतना जानते थे कि
वह मर जाने से खौफ नहीं खा रहा था...

और साथियों, अब हम...
(जो अपने को आदमी मानते और समझते हैं...)
उसकी कराहों के पूरी तरह बंद होने से पहले
अपने कन्धों पर एक बोझ सा महसूस कर
तिलमिला उठे हैं...
लड़ाई पता नहीं अब शुरू होगी
या, बहुत पहले से जारी है
जिसमें हमें अब शामिल हो जाना है...

२२-२३-२४/१०/२०१०

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

सपने हाथी दांत नहीं होते

सपने हाथी दांत नहीं होते,
जिनको बेशकीमती तो कहा जाय...
मगर उन पर
इल्जाम लगे कि महज दिखाने के लिए हैं...
यथार्थ का छद्म सौंदर्य !
जिनके लिए खून बहे तो
कीमतों में तौला जाय...
और बेशर्म खरीद-फरोख्त हो !

सपने
गाढ़े लहू से सींचे गए होते हैं... मेरी दोस्त
सपनों के लिए सजावटी कुर्बानियाँ नहीं दी जातीं
कि जिसे आने वाला वक्त
जज्बातों की प्रदर्शनियों में रखे और
नीलामी के वास्ते बोलियाँ
ऊँचें सुरों में
ज़माने भर की बेहयाइयों के साथ लगायी जायं

हर कदम पर
जितनी दुखी है
मेरी रूह,
जितना टूटा है मेरा बदन
जिस वक्त...
मेरी ईमानदारियों की रौशनी ने तुझे
रास्ता दिखाने की
पुरजोर कोशिश की है...
तकलीफ का पूरा अंधड़
मेरे भीतर से गुजरा है...
और आह मेरी तुम भी सुन नहीं पाई हो...!
हाँ, मेरे सपनों की महक
का नीम अहसास तुम्हें हुआ तो जरूर है !

प्रेम करना और सपने देखना
बहुत आसान है मेरी दोस्त...
सपनों में पकते हुए रिश्ते के लिए ईमानदार होना
उतना ही बड़ा इम्तिहान...
जिससे मैं भी गुजरा हूँ, तुम भी गुजरी हो...

मेरे सपने जिसमें तुम भी शामिल रही हो,
तुम्हारी तरफ वालों के
कायदों और नफा-नुकसान की तमीज से बेखबर
खालिस थे,
और महज़ जिंदा होने की बात किया करते थे...
सौदेबाज़ भी नहीं हुए...
तुमसे दगाबाज़ भी नहीं हुए...

आज उन सपनों को रिश्तों की मानिंद निभाता हूँ
बहुत है कि, सिर्फ़ इसी तरह तुमसे भी जुड़ता हूँ...

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

हाथी पहाड से जा रहे हैं

अभी कल के अखबार की खबर थी...
"हाथी पहाड से जा रहे हैं."
हाथी जा रहे हैं, अपने सदियों पुराने परम्परागत अरण्य
"दलमा" को छोड़कर...
विराट पहाड़ वाला अपना घर छोड़कर
जहाँ झूमते थे... सकुटुम्ब... मदमस्त, सदियों से...

कैसा लगता होगा हाथियों को अपना विस्थापन !
उजड़ जाना, उखड जाना...
जो कूच कर रहे हैं "दलमा" से
क्या फिर कभी लौटेंगे...
या लौट ही पाएंगे ?
कहते हैं हाथियों की याददाश्त बहुत मजबूत होती है...
उनको क्या याद रहेगा...इस तरह से अपना जाना...
कि जिसकी भूमिका कई सालों पूर्व से ही बनाने लगी थी...
कंक्रीट का जंगल, उनके प्राकृतिक अरण्य को
रौंद कर बढ़ता रहा... बढ़ता रहा... लील गया...
उनका शांतिपूर्ण प्राकृतिक आवास...
 
क्या याद करेंगे वे कि जब भी वो दोपायों की इस ज्यादातियों
से घबराकर गाँव-शहर की ओर भागे... वहाँ से भी
'आवारा हाथी' की गाली देकर उन्हें खदेड़ा गया...
'जंगली हाथी' के उत्पात के किस्से
बढ़-चढ़कर सुनाये गए और हमेशा उन्हीं को दोषी
बताया गया...
क्या याद रखते हुए, नहीं कल्पेंगे वे
"दलमा" मे अपना वह मुक्त विचरण
अब गूंजेगी शायद ही "दलमा पहाड़" में हाथियों की मुक्त चिंघाड...!

पत्रकार जब पूछता है,
"क्या हाथी लौटेंगे...?"
रादु मुंडा लाचारी से अपने गमछे से
मुँह का पसीना पोंछता हुआ अकबका कर
पहले उसका मुँह देखता है, फिर धीरे से कहता है
"बाबू, हाथी जा रहे हैं..."

सचमुच हाथी जा रहे हैं...
पहाड़ से हाथी जा रहे हैं.
"दलमा" से हाथी जा रहे हैं...


(झारखण्ड के पूर्वी सिंहभूम का प्रसिद्ध दलमा पहाड़ हाथियों का सदियों पुराना अभयारण्य रहा है. हाथियों के प्राकृतिक आवास के नाते ही यह प्रसिद्द है. अब हाथी यहाँ से बंगाल की ओर कूच कर रहे हैं... शहर अपनी पेंगे बढ़ाता हुआ, उनके इस निवास को हड़पता गया और आज वे जा रहे हैं, छोड़ कर दलमा को. किसे फर्क पड़ता है? हाथियों को या फिर रादु मुंडा जैसों को, मगर इनको फर्क पड़ने से भी किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है!)

- शेखर मल्लिक
११-१०-२०१०

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

अभी मेरा हमसफ़र

अभी मेरा हमसफ़र
मेरे पहलू में मुँह छुपाये सो गया है...

(उसका यह भोला सा भरोसा मुझ पर
किस कदर आश्वस्त करता है -
कि जिंदगी नि:संदेह लाजवाब है !...
एक बार यकीन करके देखो !!!)

केशों के जाले से बिखरे उसके चेहरे पर
रौशनी पर परछाइयों के आड़े-तिरक्षे धारे बनाते हुए...
निर्मल सांसों की हरारत से रह-रह कांपते नथुने...
अधखुले रेशमी होंठ, छू लूँ तो दाग पड़ जायें !
...यह रात का वक्फ़ा... उफ़
लगता है, एक जमाने के लिए ठहर गया है !
उसकी मुंदी पलकों के नीचे
उजली-उजली दो वही आँखें हैं, जो हरदम मुझे
सुख के उजाले देती रहती हैं...बिन कहे...बिन माँगे...
(दुःख कहीं हुआ तो उन आँखों की ताब सह नहीं पाता...)

मेरा तमाम वजूद लंगर डाले उसके घाट पर
ऐसे टिक गया है...
जैसे बहुत भटकते हुए अचानक अपेक्षित पड़ाव
मिल गया हो...

अब इस सर्द रात की ख़ामोश ठण्डी
धुंध के दरम्यान
उसके पूरे जिस्म की खुशनुमाँ गर्माहट से
सिंकता हुआ मैं...
इस सफर-ए-हयात में
इस अजनबी चौराहे पर
एक पुराने लोहे के खम्भे पर
सर को टिकाये,
उसे अपनी बाजुओं में भरे हुए
अपने जिंदा होने का भरपूर उत्सव मना रहा हूँ...

सोमवार, 13 सितंबर 2010

एक खुबसूरत ख्वाबगाह है उसकी जिंदगी

एक खुबसूरत ख्वाबगाह है उसकी जिंदगी
हकीकतों से इरादतन बेपरवाह है जिसकी जिंदगी

मौत की दस्तक से पहले सफ़र की ख़ामोशी में
सुनाती मासूम सरगोशियाँ सरेराह है जिसकी जिंदगी

हँसाते हँसाते जाने कब रूला भी जाती है उसे यार
बाज वक्त मुस्कानों में भी कराह है जिसकी जिंदगी

घिर गया वह नफीस अंधेरों में पुरजोर इन्तजार के
लुत्फ़-ए-इश्क में ढली बनके आह है जिसकी जिंदगी

अब तो रब ना रकीब ही कोई यहाँ रह गया है उसका
हुई बदनाम सबकी दरम्यान-ए-निगाह है जिसकी जिंदगी    

शनिवार, 21 अगस्त 2010

एक नदी मुझमें रहती है...

एक नदी मुझमें रहती है...
बहती रहती है मेरे रगों में निरंतर...
छप्...छप्... कल...कल... गुडुप...गुडुप...गुडुप...!
वही नदी मेरे कस्बे की सरहद पर
घुँघरू बजाती हुई छोटी बच्ची की तरह
श्वेत फेनिल झागों को सरकाती हुई नन्हें पैरों से
निरंतर दौड़ती-भागती रहती है...धारावार...
बदली में, धूप में,
कई-कई रूप में !
हाय, वह अल्हड बच्ची...

नदी बतियाती है मुझसे... हौले से कान में...
मकर सक्रांति और छठ के मेले
कब-कब लगेंगे...?
मेरे भीतर हमेशा
एक कंपती हुई नमी बहती है...
स्नेहिल थपकियाँ दे कर ज्यों सुलाती हुई...

नदी, जो एक हमराज भी है...
जिसमें पाँव डाले
हर शाम देर तक बैठता हूँ देर तक...
ढेर सारी बातें किया करता हूँ...
दोनों थोड़े उदास और पास-पास
जब से थोड़ी उम्रदार हो गयी है मेरी ही
उम्र के साथ-साथ... यह नदी,
मुक्त हो कर
सभी वर्जनाओं से जब चाहे जी,
नदी को कसकर गले
लगाता हूँ...
सूरज परली तरफ खड़े पहाड़ों के
पीछे ओट ले लेता है,
भलमनसाहत है उसकी !...
नदी कानों में फुसफुसाकर कहती है...
घर जाओ, देर हो जायेगी
मैं भी उसी किस्म की फुसफुसाहट
से उत्तर देता हूँ, मेरा घर तुम हो...
नदी शरारत के मारे इठला जाती है...

रोज मेरे भीतर हल्की थपेड़ों की आवाजें,
आज़ाद लहरों की किलकारियाँ,
और पनीले जलकुम्भियों की अठखेलियाँ...
मुझमें नदी का विस्तार लिए शामिल हो जाती हैं.

ये नदी मुझसे इतिहास के दिन दोहराए जाती है
वसंत... सावन... शरद... मौसमों को कैसे जिया मैंने,
हुलस-हुलस कर पूछती जाती है,
तब यूँ भोली बनती है
जैसे कुछ जानती ना हो... और,
कभी गुमसुम, कभी खिलखिलाने लगती है.
मैं उदास होता हूँ,
नदी खामोश बह जाती है...
जब रोता हूँ...
नदी छलछला जाती है...
हँसता हूँ...
कहती है, तुम्हारी खुशी को नज़र ना कहीं
लग जाये मेरी !

नदी प्रौढ़ हो जाती है एकाएक...

मेरे साथ ही गूंजती, खिलखिलाती, हँसती है...
समव्यस्का की भांति
मैं कहता हूँ, भावातिरेक में
उत्तेजित हो कर
सुनो, तुम्हारी कोई तस्वीर बनाना चाहता हूँ
वह कहती है, जिस दिन पानी पर रेखाएं रच लेने का
गुर सीख लोगे, बना लेना...!

यह नदी "स्वर्णरेखा"
जिसकी तटों की सुबह और शामें...
लोकप्रिय हैं, सुदूर शहर से आने वाले सैलानियों में
या सरकारी पर्यटन के मानचित्र पर...
जिसकी रेत में से सोने के कण मिलने के मिथक
आज भी सच साबित होते हैं...
क्योंकि एक आदिम जाति के लोग
तलाश लेते हैं, काफ़ी मशक्कत से पोस्ता जैसे कण,
जिसके किनारे ताम्बे का पुराना कारखाना
चूँकि, जिस पर अर्थव्यवस्था
की प्रगति का दारोमदार है...
इसमें अवशिष्ट घोलकर भी निष्कलंक रहता है...,
और जिस पर बने नए चौड़े पुल के बगल में
प्रांतीय मंत्री की स्तुति करता शिलापट्ट लगा है...
लेकिन नदी का तो ये परिचय खांटी अखबारी है !
जबकि मैं कहता हूँ...
असल में, यह नदी मेरी बहुत सगी है...
जैसे, मेरे दुखों में दुख
सुखों में सुख महसूसती हुई...
मेरी अबसे अच्छी सहेली सी ये नदी...
यूं ही नहीं कहता कि,
बस... ये मुझमें रहती है...!
मैं इसमें,
और यह मेरे भीतर
बूढ़ी होती हुई...

१९-२०-२१,अगस्त २०१०

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

साथी तुममें सावन है...

ओह मेरे साथी,
देखो पहाड़ों पर सावन है...
स्फूर्त हरियाली में सावन है
भीगी हुई चिर सद्यःस्नाता सी ये रातें
इन रातों में सावन है
तप कर जो कुन्दन हुईं,
तेरे इन्तजार में,
उन सांसों में सावन है

मन की क्षितिज के ओर छोर में
पाता हूँ
पावस के समृद्ध पयोधर सा
तुम्हें साथी
जानता हूँ कि
तुम में सावन है...

ये किस्सा...
गुनगुनाते हुए भीगते-भीगते दूर सड़क
पर वक्त काटने जैसा है...
छींटों को जीभ से चखने जैसा है
और आल्हाद का एक दरिया
भीतर उफनता है...
मैं खुश हूँ, मेरे भीतर एक सावन है !

हर एक सपना सावन है... साथी...
सपने का एक छोर तुम थाम लो
एक मेरे पलकों पर बाँध दो...
चलो, गीला हो जाएँ दोनों...
अगर इस बार नहीं, अगली बार कभी...
है जो बाकि इन्तजार अभी ...
कि,
फिर एक सावन तो ऐसा भी आयेगा
भीगेंगे दोनों खूब मन भर कर
तन जोड़ कर...
खिलखिलायेंगी... झुकती हुईं डालें नीम की
नाचेंगी बूंदें सीवान पर के नद्य पर
महकेंगी आँगन की दूब घनीं...

सावन के  असर सारे
यहाँ से जब लुप्त हो जायेंगे
फिर माँगने को सावन भरपूर
हम सावन के गीतों में गाए जायेंगे...!

३०-०७/१९-८-२०१०

बात किताबों की (भाग - १)

किताबों को नहीं पढ़ना किताबों को जलाने से बढ़कर अपराध है | -– रे ब्रेडबरी


किताबें हमारी सबसे भरोसेमंद और ईमानदार सहयात्री होती हैं. ये अपने समय का प्रामाणिक सामाजिक-राजनीतिक कलात्मक दस्तावेज तो होती ही हैं, कालान्तर को पाट कर इतिहास और भविष्य तक भी हमारी यात्रा कराती हैं. किताबें सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक सम्पदा होती हैं. ये मानस का परिष्कार और परिमार्जन तो करती ही हैं,  दूसरी दुनिया की तरफ खुलने वाली खिड़की होती है.
दोस्तों, किताबों पर लिखना बहुत सुखद होता है. ठीक उतना ही, जितना उनसे गुजरना. पढ़ लेने के बाद पढ़े हुए को दोबारा चेतना में बुनना-गुनना मनन और चिंतन का महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ पर ठहर कर अपने बोध को तौलने और साझा करने का मौका मिलता है. चेतना के स्तर पर उस बोध को आत्मसात करने का अवसर है, पढ़े हुए पर बात करना. जैसे मानस को पृष्ठ दर पृष्ठ खोलना...
जब हम रचना पर बात करते हैं, तो रचनात्मक पक्षधरता पर भी बात करनी होती है. सर्वकालीन महान साहित्य नितांत मनुष्य के प्रति पक्षधर होता है. मनुष्य-विरोधी साहित्य अगर रचा जाय भी तो, वह  अत्यंत अल्पजीवी होगा. प्रेमचंद, यशपाल, रेणु, रान्घेय राघव, नागार्जुन, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, शिवमूर्ति, और कई लेखकों की कहानियाँ, मनुष्य मात्र के प्रति कोमल और तीखी रागात्मक संवेदना से भरी हुई हैं. सभी बड़ी रचनाओं का एक केन्द्रीय तत्व प्रेम भी होता है. प्रेम ही वह मूल अनुभूति है, जो संवेदना के रूप में प्रकट होती है. कला बगैर प्रेम के संभव ही नहीं है. प्रेम ही पक्षधरता के लिए प्रेरित करता है.
किताबें आपको सिखाती हैं कि, आदमी कैसे बनना है. अच्छी किताबें मनुष्य को तराशती हैं. बहुधा हम किताबों के मध्यम से उजाले की एक नई दुनिया में आते हैं, जहाँ औरों के जिए, भोगे अनुभव, संस्कृति व परम्पराओं, राग-द्वेष के, जीवन के बहुआयामी अनुभवों से हमारा साक्षात्कार होता है.
दोस्तों, चेतना के स्तर पर झकझोरने का माद्दा रखने वाली पढ़ी हुई कुछ ख़ास किताबों की याद आ रही हैं... इस बार सिर्फ़ गद्य साहित्य पर बात करता हूँ, पद्य और अन्य रचनाओं पर आगे कभी... इन और अन्य कई पर अलग-अलग भी बातें होंगी. फिलहाल...
प्रेमचंद का "गोदान", रेणु का 'मैला आंचल", श्रीलाल शुक्ल का "रागदरबारी", यशपाल का "झूठा सच", कृष्णा सोबती का "मित्रो मरजानी", मंजूर एहतेशाम का "सुखा बरगद", राही मासूम राजा का "आधा गाँव", विनोद कुमार शुक्ल का "मुझे चाँद चाहिए", धर्मवीर भारती का "सूरज का सांतवा घोड़ा",  मैत्रेयी पुष्पा का "बेतवा बहती रही"... और ना जाने कितनी कृतियाँ... एक पाठक के रूप में आपको संवारती हुई, संस्कार देती हुई और लेखक के रूप में मांजती हुईं... "शेखर एक जीवनी", "गुनाहों का देवता" और "निर्मला"... वर्जनाओं को तोड़ने वाली रचनाएँ, संवेदनात्मक गाढ़ेपन को पुष्ट करती हैं. सर्वकालीन महानतम पुस्तकों में कई नाम शुमार किये जा सकते हैं. गोर्की की "माँ",  तोल्स्तोय का "युद्ध और शान्ति"... मार्खेज़ का वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलिट्यूडऔर लव इन द टाइम ऑफ कोलेरा जब हम महान कृतियों की सूची बनाते हैं, तो ऐसी बहुत सी रचनाओं को इसमें स्थान देने को बाध्य होना पड़ता है, जो मनुष्यता को प्रधान तत्व बनाकर रची गयीं और ऐसा होना लाजमी भी था.

हिन्दी की कुछ प्रमुख कहानियाँ (लिंक सहित) -
प्रेमचंद - कफन
यशपाल – पर्दा
रेणु - संवदिया
भीष्म साहनी - चीफ की दावत
मोहन रकेश - आद्रा
मन्नू भंडारी – त्रिशंकू
रान्घेय राघव - गदल
कृष्ण सोबती - सिक्का बदल गया
शिवमूर्ति - तिरिया चरित्तर
शेखर जोशी - कोशी का घटवार   
सृंजय – कामरेड का कोट
उदय प्रकाश - मोहनदास  

इस सूची में आप और कई सारी रचनाएं जोड़ते जा सकते हैं... ये सूची कभी अंतिम नहीं हो सकती.

रविवार, 15 अगस्त 2010

बचा हुआ है कुछ (कविता)

हालाँकि,

तिलमिलाए हुए
(जंतुओं जैसे)
मनुष्यों के पास
यदि बचा हुआ है कुछ,
तो कौड़ी भर वफ़ादारी,
हर सुबह असलियत की गर्मी में भाप
होने से पहले
उम्मीद की ओस
और
बेतरतीब टूटे हुए नाखून...

झड़ते हुए बालों से
उम्र गिनते हुए
बचे हैं धुंधले होते हुए
अभी, बाबूजी जैसे लोग...
और चौराहे पर रोज 'नगर-बस'
की प्रतीक्षा करती प्रेमिकाओं
के पास बची हुई है
सड़क के परले तरफ
खड़े प्रेमियों पर
एक नज़र उछाल देने की फुर्सत...
तमाम चीजें, दूसरी चीजों में
कुछ-कुछ बच जाने की उम्मीद में
बची हुई हैं...
और आदमी भी...इसी तरह...

लगातार एक ही जगह
खा-खाकर चोट
जो लोग तिलमिला रहे हैं...
उनके खुले जख्मों को
नमकीन हवा सहला रही है
और भूख, महंगाई, घोषणाएँ, वायदे,
तानें, उनींदी रातें... उन नासूरों में ऊँगली
घुसेड़ रही हैं
तो उनके पास बची हुई है,
बीस डेसिबल से कम हर्ट्ज की मातमी रुदालियाँ...

बदहवास आदमी का
बदरंग चित्र हवा में टंगा है
और बराबर पीछा करता है
राजपथ की चौड़ी सड़क के किनारे...
गुहार लगता हुआ, कि उसे बचा लिया जाय

शोर अब भी बचा हुआ है
सिर्फ़ संसद ही नहीं, साप्ताहिक हाटों में भी
अमूमन देश के सभी शहरों में...
बुद्धिजीवियों की कनफोडू-कलात्मक बहसें
प्रेक्षागृहों की दीवारें जज्ब कर रही हैं
इधर बचे हुए लोग
नारों और लाठियों के बीच खप रहे हैं...

पायी हुई आज़ादी की  असलियत, रूख और सच्चाई पर
आज़ादी की दूसरी रात से ही बहस जारी है
बहस करने के लिए बची हुई है
आज़ादी... और,
अगस्त महीने का पन्द्रहवाँ दिन बचा हुआ है,
इसको पूरी श्रद्धा से याद दिलाने के लिए ! हर साल...

तथापि,

नए लड़के नयी फसलों की तरह
नया स्वाद लाने के लिए कटिबद्ध
हैं और
उनसे अपेक्षित है इसके लिए होना प्रतिबद्ध
नसों में बहता खून बचा हुआ है...
देह और आँखों का नमकीन पानी
बचा हुआ है...

सीमा पर,
लोकतंत्र की मरजाद पर
लड़ने-मरने
के लिए बचे हुए हैं सर
और अपने दानों को बाइज्जत चुगने का
हक़ पाने तक
पूरी लड़ाई बची हुई है
अभी...

बन्दूक के बरक्स
कलम उठाने के लिये उंगलियाँ
और कलम में असर तय करने के वास्ते
सधे हुए ईमानदार विचार... बचे हैं,
थोड़ी ही सही, कहीं ना कहीं
साफ़ नीयत भी बची हुई है...
उम्मीद बची है... इसलिए,
खुशनुमा तबियत बची है.

पुराने चाकू अगर हैं
तो नई कोंपलों का आना भी बचा हुआ है.

सचमुच बचा हुआ है बहुत कुछ...

शनिवार, 14 अगस्त 2010

कहानियों के नोट्स - "गदल" (रान्घेय राघव)

कई बार कुछ कहानियां अंतर्मन को छूती हैं और बरबस कुछ कहने का मन हो आता है. पिछले दिनों रांघेय राघव की कहानी "गदल" भी कुछ ऐसी ही बेहतरीन कहानियों में से एक है. कथ्य एवं शिल्प के मामले में अनूठी और बेजोड़. राघव जी की  "गदल". नारी के उद्दाम उत्कंठा, प्रेम और सबसे पहले उसके आत्मसम्मान-स्वाभिमान को किस खूबसूरती से पिरोया है.

फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाएँ,खासकर 'मैला आँचल', पढ़ लो तो शब्दों का टोन दिल-ओ-दिमाग पर घंटियों सा देर तक बजता रहता है. रेणु की कहानियाँ बताती हैं कि, शब्दों की मार क्या होती है, कैसे बिना ज्यादा कहे, सिर्फ कुछेक शब्द द्वारा पूरी स्थिति, पुरी तस्वीर भरपूर व्यंग और कटाक्ष के साथ खड़ी कर दी जाती है! उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ... "ठेस", "संवदिया" और "पंचलेट"...

"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" की तरह कुछ खास है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती.. खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.

डोडी के प्रेम में गदल तो उसी समय पड़ गई थी जब १४ वर्ष की आयु में उसका भाई डंडे की जोर पर उसे ले आया था. " जग हंसाई से मैं नहीं डरती देवर !...... तू उसके साथ तेल पिया लठ्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब?मैं आई थी कि नहीं?" वही प्रेम था, विश्वास था कि वह डोडी से भी निभाती रही उसकी भाभी बनकर...डोडी भी तो उसी को चाहता रहा, परोक्ष रूप से. इसीलिए वह बर्दास्त नहीं कर पाया कि गदल उसके रहते किसी और मर्द के घर बैठ जाये. लेकिन गदल ने ऐसा क्यों किया... कारण था ये... "चूल्हा मैं तब फूकूँ, जब मेरा कोई अपना हो." गदल को बेटे बहू की मजूरी मुफ्त करनी मंज़ूर नहीं. "ऐसी बाँदी नहीं हूँ कि मेरी कुहनी बजे, औरों के बिछिए छनके." कहानी यहीं पर साधारण से असाधारण हो उठती है. अघोषित रूप से  के आत्मसम्मान का प्रश्न उठती है. उसके यौनिक अधिकारों का मसला उठती है.

"गदल" में नारी का खाका शिवमूर्ति जी के "त्रिया चरित्र" से कहीं विपरीत खींचता है. नारी का प्रेम और सुप्त कामना जिसे वह वाणी से नहीं कहती पर वह अपने समझने वाले को इशारे खूब करती रहती है, उसे मानों धिक्कारती, ललकारती रहती है... खूबसूरती तो इसी इशारे को बयां करने में है.

रचना ह्रदय के पार जाये तभी तो वह काल से पार जाती है... कालातीत, कालजयी हो सकती है. कहानी का अंतिम दृश्य और संवाद, गदल का अंतिम वाक्य... उफ़ किस तरह तीर सा ह्रदय को भेद जाता है...! प्रेम की ज्वाला भी कितनी शालीनता से अपने तेज के साथ प्रकट होती है. 

नारी विमर्श की रचनाएँ इधर खूब नयी धारा की आयी हैं. पर 'गदल' कुछ और ही नायाब लगती है. एक स्त्री की बहादुरी, प्रेम, आत्मसम्मान, जुझारूपन... हर पहलू मुखर हुआ है... बगैर किसी दावे या घोषणा के.

"गदल" को पढ़ना स्त्री-मनुष्य की चेतना को पढ़ना है. 

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

काश यह कोई दूसरी दास्तां होती !

उसे बहुत कुछ देना चाहता था, अपना दामन फाड़ के सब दे देना चाहता था, और जिंदगी भर की तसल्ली हासिल कर लेना. ये उन दिनों के हालातों के तकाज़े की बात है, वरना मेरी अंजुलियों में इतना था कि वो तृप्त हो जाती, मैं सब पा जाता... वह फिर कभी भी आसमान पर चाँद देखकर निराश नहीं होती... ना उनींदी रातों में उसके माथे पर सलवटें आतीं... कुछ ऐसा था मेरे पास जो हर जिंदा रूह के पास होता ही है; कम-बेसी, मगर होता तो ज़रूर 
है. अगर आपको याद हो तो, वही चीज जो 'लहनासिंह' 'सूबेदारिन' को देना चाहता था, जो 'काली' 'ज्ञानों' को  और 'परीकुट्‌टी' और 'करूत्तम्मा' एक-दूसरे को देना चाहते थे. सब समाज की चौखट के पार दूसरी दुनिया में जाते हुए दे पाये थे ! खैर,

सपना यहाँ से शुरू होता है...

बहुत बड़ी-बड़ी और गहरी नदियों के पार, घने और दुर्गम्य जंगलों के नीम अंधेरों में, किन्हीं बुजुर्ग पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पर जहाँ सूर्य हर शाम उस कस्बे के वाशिंदों की भोली निगाहों और मेहनतकश बाजूओं से पनाह लेता है. आसमान पर हर शाम का रंग नया होता है... उसके पीछे मैं एक सदी, एक उम्र भागा... उस मादक-गंध के पीछे-पीछे भागा... उस अनजानी महक फेंकते अदृष्ट सोते के पीछे भागा... और मेरे पैरों में कड़ियों की मानिंद सारे फलसफ़े, सभ्यता के नियम और नैतिकताएँ-व्यावहारिकताएँ, सारी कविताएं, सब किस्सेकोताह बंधे थे; मेरी कमर से लिपटा पूरा इतिहास घिसट रहा था...असफलताओं का सुनहरा इतिहास...!
दूर किसी ऐसे आबशार की तलाश में, जो मेरे सपने के भीतर सपनों में था, मैं प्यास से हलकान हो उसकी आस में बेतहाशा भाग रहा था, लेकिन मैं जितना उसके पास आता गया, वह उतना ही दूर लगता रहा. बचपन में माँ की कही एक बात याद आई, "पहाड़ करीब दीखते हैं, मगर जितना उनके पास बढ़ते जाओ, वे उतने ही दूर होते जाते हैं."
"ताउम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की / अंज़ाम ये के गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया..." जगजीत सिंह की आवाज़ गुनगुनाने लगी... हलक की क़ैद से एक रूहानी हँसी छूट कर हवा में गूँजने लगी.

सपने में मरोड़ और ये बिखर गया...

साथ वाली प्लेटफॉर्म पर लगी ट्रेन की तेज़ सीटी और एक धक्के से होश आया. मैं सफर में था. मेरी रैटिना पर पहला अक्स उभरा, सामने वाली सीट पर बैठा वह नवविवाहित जोड़ा जो एक-दूजे से रेशा-रेशा चिपका था. वे हँस-हँस कर बातें कर रहे थे और इतना पास होने के बावजूद मुझे उनके शब्द सुनाई नहीं दे रहे थे.

मैं विभम्र की स्थिति में था...

रेल पटरियों पर जुगलबंदी करती हुई सरपट भाग रही थी. पहाड़, खेत, नाले, जंगल, गाँव-जवार, झोंपड़ियाँ, नदी, खाईयाँ... हरेक शै उल्टी दिशा में दौड़ रही थी. क्या वक्त इसी तरह से पीछे फिर सकता, उल्टे...उल्टे...!!! हवा में कोई हँसा ! मगर घोर दृष्टिदोष ! भाग तो मैं रहा था, वे तो वहीं थे...स्थाई रूप से... भूत और सच्चाई की तरह मजबूत... अटल ! 
मैं गेट पर आ कर खड़ा हो गया था और दरवाजे की हैंडिल पकड़ कर खड़ा रहा. हवा के झोंके पूरे बदन से टकराने लगे, गाड़ी की रफ्तार से शरीर हिचकोले लेता था. जानता था इस हालत में वहाँ वैसे खड़े रहना खतरनाक है, मगर मैं दिल की ज़िद से मज़बुर था! "कामेश्वर, जब बुद्घि कोई उपाय नहीं सुझाती तो दिल की जिद सुन लेने में कोई हर्ज नहीं...?" अपने भीतर कोई दार्शनिक की तरह कह रहा था, "और, साफ कर दूँ, दिल की सुन लेना जुनूनियत है! हर किसी के बस की बात नहीं...बस जज्ज्बा होना चाहिए"
अपने माज़ी से मुख़्तसर आवाज़ें गूँजने लगीं... "सुखसिंग, वह मर जायेगा देखना, उसकी बीबी, दो सुंदर-सुंदर बेटियाँ हैं... वह उनके सामने रोज ज़लील होना आखिर कितने दिन बर्दास्त करेगा ? मरेगा..." ये केवल सूचना थी या जुगुप्सा या बेचैनी या सहानुभूति...? ना तब तय कर सका था, ना अब. मगर सुखसिंग की आवाज़ में निश्चय ही कठोरता, भर्त्सना, उपेक्षा थी, "मरे, मरेगा ही, उसकी बीबी बेहद सुंदर है, देखा नहीं तुमने... बहुत सुंदर...! उस जैसी बेशक्ल वाले को ऐसी सुन्दर बीबी...! दस दुआर मुँह मारेगी, बीस जगह जूठी होगी... ये मरेगा नहीं...?" 
"छी:..."

और सचमुच एक रोज़ उस बेशक्ल वाले आदमी ने आत्महत्या कर ली, एक सुबह अपने ईष्टदेव के मंदिर के प्रांगण की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे आप पर मिट्‌टी का तेल डाल कर लपटें उठा दी थीं. लपटों में अपनी ज़िंदगी के सब शको-शिकायतें, मलाल भसम कर गया. वह अफवाहों के कारण मरा था; उसके मरने पर तमाम अफवाहें फैलीं... 
मगर वह भला आदमी था, 
मगर शायद वह बेहद कमजोर आदमी था ? एक उदास... बेशक्ल वाला आदमी...
...और एक दिन मंदिर की सीढ़ियों पर आत्महत्या करना जिसकी नियति थी... बिल्कुल उसी तरह, जैसे एक निहायत खूबसूरत पत्नी पाना... 

मैं झटके खा रहा था. सामने नंग-धड़ंग बच्चे खेतों में जमे पानी में नाचते-कूदते धम्मा-चौकड़ी मचा रहे थे. एक-दूसरे पर कच्ची मिट्‌टी के ढेले फेंकते... धीरे-धीरे वह दृश्य भी पीछे गुजर गया... 

उस आदमी की दो बेटियाँ थीं, प्यारी-सी बेटियाँ... जवान होती हुई बेटियाँ... इंद्र की एक अप्सरा का नाम मिला था बड़ी को  और वह अपने पाए हुए नाम को साबित भी करती थी; कि इस पर सिर्फ उसी का हक़ हो सकता था. साँवली सुरबाला ! 
'कामेश्वर, फासले तब तक होते हैं जब तक तुम कदम उठाने से हिचकिचाते हो...'
'मगर कुछ फासले फिर भी बाकी रह जाते हैं"'
'अपने दर्शन को ले कर एक दिन नेस्तनाबूद हो जाओगे, देखना तुम... हुँह्‌...!'

जेहन में ख्यालों की आमद एकाएक सुस्ताई तो मैं अपनी सीट पर दोबारा आ बैठा. मैं मृत्यु से बच कर आ गया था, जो मेरे कदमों तले गेट के पायदान के नीचे सरपट भाग रही थी. लेकिन मैं मर चुका था! बहुत पहले, बहुत-बहुत पहले... 

'कामेश्वर, तुम पागल हो, बेवकूफ़ हो, तुम्हारी इस जैसी बोसीदा-कल्लर कहानियाँ पहले भी बहुत दफे बताई जा चुकी हैं. बेकार की मशक्कत कर रहे हो. सिर्फ खुद को तसल्ली देने के लिए, सिर्फ खुद को खुद के सामने अफ़सानानिगार साबित करने के लिए...' 

ट्रेन के बाहर बारिश पड़ने लगी थी. प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से मानसून के दिनों के आने के संकेत मिलने लगे थे. चट से जोरदार बरसात...! खिड़की के शीशों से टकराती ज़िंदा बूँदें भीतर चू कर, मेरे बदन से मिल कर कुछ अपनापा जताने को बेताब हुई जा रही थीं. मैं मन मार कर नव विवाहित धनाढय बंगाली जोड़े को चोर नज़र से बार-बार ताक लेता था. उन्हें भी बारिश पसंद आ रही थी. लड़की के चेहरे की पुलक उस खुशी की शिनाख्त कराने को उभर आई थी. लड़कियों को बारिश में भीगना भाता है, यह उनका मौलिक-निजी मनोविज्ञान है. 
तालाबों में, हरे खेतों के बीच जिनका ठिकाना बना था, नए-नए ताजे उजले गुलाबी चमकदार कंवल खिले थे, चौड़े-चकत्ते पत्तों के ऊपर तैरते... पहाड़ पर बादल थे. लंबी पहाड़ी श्रृखंला का  आसनबोनी और राखामाइंस स्टेशन के बीच हिस्सा... कह सकता हूँ, हरे-भरे समृद्घ पहाड़ों पर मैंने भी "बाबा"  की तरह 'बादल को घिरते देखा है', तिरते देखा है.

वो पहाड़ों के आँचल में पसरी हरियाली बस्ती में रहती थी. कहा करती थी, "तुम आओगे तो हम घूमने चलेंगे. तुम आना. आओगे ना ?" 
"घूमने, कहाँ ?"
"पहाड़ पर." 
"पहाड़ पर ?"
"हाँ, कितना अच्छा लगता है ना पहाड़ पर... ऊपर... और ऊपर चढ़ते जाने का मन करता है. और वहाँ से पूरी दुनिया कितना सुंदर, कितनी सूक्ष्म लगती है. खुद के वृहत्तर हो जाने का अंह होता है, पहाड़ के साथ पहाड़ जैसा वृहद्‌... और सबसे बड़ी बात, वहाँ ज़मीन और आसमान के बीच सिर्फ तुम और मैं होंउंगी बुद्धू... सिर्फ तुम औ..." तब नहीं जनता था कामेश्वर कि, पहाड़ों के साथ रहने वाली, पहाड जैसी ही कठोर भी हो जायेगी... कामेश्वर ने पूरे आवेश से उसके दहकते कपोलों को अपनी अंजुली में भर लिया, माथे पर एक गाढ़ा चुम्बन दिया...  
"तुम इतने अच्छे क्यों हो ?" इंद्र की अप्सरा जानना चाह रही थी. 
सफेद धारियों वाले नीले फ्रॉक में रोशनी का एक पुंज साथ चल रहा था... कामेश्वर उसके तिलिस्म के दायरे में कैद होता जाता. कदम-दर-कदम, साँस-दर-साँस, तारीख-दर-तारीख... सम्मोहन के पार दूसरी दुनिया में जहाँ दो साँवरी-साँवरी बाँहें होतीं. मधुसिक्त रक्तिम होंठ होते और उन पर इसरार होता, "आज सजीव बना लो/अपने अधरों का प्याला/भर लो, भर लो, भर लो इसमें/यौवनमधुरस की हाला..."

एक अभिशप्त अप्सरा...

कामेश्वर नवविवाहित जोड़े को देखता है, वे मुँह जोड़े बैठे हैं. क्या इस हद तक एक-दूसरे में गुम हुआ जाता है, जा सकता है ? शायद हाँ, तो इसमें ताज्जुब क्या ? क्या उसने और "उसने" भी ऐसे ही गुम कर देने वाले पलों की चाह नहीं की थी...? चाहना और चाह को नेमत की तरह पाना हमेशा कहाँ हो पता है...

बारिश पीछे छूट गई है... बरसने वाले बादलों की टुकड़ी पीछे कहीं ज़मीन के किसी टुकड़े पर बंधी रह गई...  
अब अस्ताचलगामी सूरज की सुनहली आखिरी किरणें काले बादलों के एक धब्बे की आड़ से झाँक कर अपनी अंतिम आभा बिखेर रही थीं. ताकि बूझने से पहले निशाँ छोड़ जाऐं, उष्मा छोड़ जाऐं... 
'तुम तो अपने उन दिनों को इस मुकाम तक ना पहुँचा सके, तुम्हारा दिन आधे जल कर ही बुझ गया!' 
कामेश्वर की तरफ नवविवाहिता एक बार कनखियों से देखती है, फिर हिना रचे हाथों से अपने बालों को चेहरे से हटाती हुई अपनी दुनिया में लौट जाती है. कामेश्वर उसकी मुस्कान की एक बेहद नाजुक कौंध में अपने लिए अजनबियत, तुच्छता और उपेक्षा का स्वाद पाता है. 

"बाबा के साथ मेरा सब चला गया कामे..." 
कामेश्वर चुप है. उसका बोलना बेकार है. वह धीरे से उसका सिर अपने सीने से दबा लेता है. कहना चाहता है कि मैं तो साथ हूँ हमेशा, पर खामोशी के ज़रिए इस बात को उसके अंदर डाल देना भी चाहता है, इसलिए बोलता नहीं, बल्कि उसे थोड़ा और कस लेता है. 
"सपनों से बाहर निकलो कामे", वह सिर उठा कर सीधे उसकी आँखों में देखती है, "बहुत मुश्किल हो गया है अब सब कुछ. वह दिन नहीं रहे... वह वक्त नहीं रहा. वैसा कुछ नहीं होने वाला जैसा हमने सोचा था." 
"क्या तुम भी वही ना रही", कामेश्वर घुटी-घुटी आवाज़ में कहता है. 
"हाँ, नहीं रही. कैसे रहूँ बोलो...?" कैसी पीड़ा उस आवाज़ में उस दम... कामेश्वर को कुछ समझ नहीं आ रहा. वह उसे और भी कस लेता है, बिल्कुल एक डरे हुए बच्चे सा, जो अपनी माँ से और भी चिमट जाता है, अगर वह एकाएक उसका हाथ छुडाकर जाने लगे... 
वह उसे अचानक आसमान का तारा लगने लगी है... दूर की आशा...! वह भारीपन उठाऐ गुरू स्वर में कहे जा रही थी, "सारी जिम्मेदारी चाचाजी ने संभालने की बात कही है. माँ और मुझ पर भी लोग जहान ने कालिख के छींटे उड़ाए हैं. माँ की तो ज़बान चली गई... बाबा के साथ मेरा सब चला गया... सब तुम्हारी आँखों के सामने है," एक सिसकारी शब्दों की गूँज के पीछे से फूटती है धीमे से, "तुम मेरे लिए बस एक नामुमकिन हकीकत बन कर रह गए कामे...". 
एक अप्सरा अभिशप्त हो गई थी, एक मामूली कमजोर इंसान बन गई थी... अपनी सादगी में, मज़बूरियों में, और फूटफूट कर रो रही थी...
 "मुझे अपना भरोसा दे सकती हो ना...तेरे चाचाजी से मैं मिलूँ..."
"खबरदार कामे...", आहत के चरमोत्कर्ष पर वो चिल्लाई थी, "भूल कर भी ऐसी गल्ती ना करना...वरना अबकी माँ और मेरी राख उड़ेगी... तुम यही साबित कर दोगे ना कि हम वाकई में रंडियाँ हैं... कि चाचाजी भी औरों की तरह यही मानने लगें कि माँ के कारण बाबा..., मोहब्बत नाम के रिश्ते को कोई नहीं जानता कामे कि उसका वास्ता दिया जा सकेगा... तुम हमारे बीच के इसी रिश्ते को गाली बना दोगे...छोड़ो रहने दो. यह खुबसूरत है कामे, इसे छोड़ दो ऐसे ही... मुझे जीते जी मरना तो है... पर माँ के लिए इतना तो करूँगी ही..."
कामेश्वर कहना चाहता है, कि मुझे भी मौत दे रही हो... पर निरूत्तर था, वह आगे भी कह रही थी, "अगर माँ ने ही प्यार भी किया तो क्या बुरा किया...किसी को दगा नहीं दिया... माँ परिवार को सब कुछ तो दे रही थी, क्या अपने को कुछ देने को चाहना उनका कसूर हो गया, कामे क्या तुम बात को, मुझको समझोगे ? मेरी माँ को समझोगे ?"
कामे सदमें की गिरफ्त में था, उसके जाने के बहुत देर बाद तक निशब्द...  आँख पोंछने और दिल को समझाने की फाल्तू कोशिश करता सा... उसके कानों में पत्थरों और टूटे हुए क़दीम पुलिया से टकराती स्वर्णरेखा का चीत्कार भर रहा था.

मैंने खिड़की के बाहर सुना, एक शोर अब भी था; दौड़ती ट्रेन की हाँफ पटरियों पर से शोर बन कर उठ रही थी... 
इक्कीस दिसंबर की एक सर्द भोर में, उसके सभी सपने ज़रीदार भारी लाल जोड़ा पहने, गहनों से लदे-फदे, सिर के नहर में कमला सिंदूर डाले सात फेरों के चक्कर में मेंहदी वाले हाथ उलझाए एक अजनबी के साथ गुम हो गए. 
'तुम सोचते रहो कामेश्वर, काश यह नहीं हुआ होता... काश, तो... यह कोई दूसरी दास्तां होती...! जिसे तुम मुस्कराहट और नशे में चूर होकर बांच रहे होते, जैसे वह बंगाली जोड़ा इस समय उसे जी रहा है...'

सामने बैठा जोड़ा अभी अचानक किसी उत्तेजना से खिलखिला उठा था, ठीक इसी पल गाड़ी पुल पर से गुज़रने लगी... और धड़धड़ाहट में उनकी हँसी धँस गई... मैं आँखें बंद करके एकबारग़ी चमक कर आँखें खोल बैठा था. अपने भीतर भी एक धड़धड़ाहट महसूस की. अपने आप को बहलाने के लिए कुमार शानू का कोई गीत गाने लगा, इतने धीमे कि सामने वाला जोड़ा सुन न सके. 
वैसे ही जैसे, वह बतियाते हैं और मुझे सुनाई नहीं देता !...

रविवार, 8 अगस्त 2010

एक असंबद्ध कविता का ड्राफ्ट

रक्त की बूंदों से भी
ज्यादा शुद्ध संभावनाओं की
अवैध हत्या की जाती है...
हरदम ठीक उसी क्षण से ऐन पहले
जब उनके पनपने की तेज गुंजाइश हो
या तब, जब उनकी धार तेज हो जाने का खतरा
कनपट्टियों को सुर्ख करने लगे

फिर मातमपुर्सी के लिए
गाहे-बगाहे कुछ सभायें आयोजित कर ली जाती हैं
और संतोष की सारी प्रायोजित खबरें
आसपास बिखेर दी जाती हैं...

जब 'मैं', 'तुम' और 'हम'
जैसे पुरुषवाचक सर्वनाम
एक खराब मशीन के
कलपुर्जे बनकर रह गए हों
फिर भी नपुंसकता का पता ही नहीं चलता
क्योंकि ये
अवसरवाद के नए व्याकरण और परिभाषाओं में
संकरित हो गयी है.

ऐसे अवसरवादी कालखंड में
जब हर कोई अपने अवसर भुना रहा है
हथेलियों और तलवों की खुजली मिटा रहा है
कोई गा रहा है,
कोई रो रहा है
कोई धो रहा है,
तो कोई ढो रहा है!
मकसद सिर्फ़ लेने या पाने से है...
और पीढ़ी के ज्यादातर लोग
सिर्फ़ इसी फ़िराक में डटे हुए हैं...

शवों पर रोने के लिए कुछ बेचारगियाँ हैं
जिनकी शिनाख्त कोई बड़ा मुद्दा नहीं है...
लोकहित की घोषणाएँ सिर्फ़ खुशनुमां मुहावरे हैं...
जिनको दातून की तरह चबा कर थूका जाता है
ना कि गन्ने की मानिंद चूसा जा सकता है !

सीना तान कर चलने वाली आवारगियाँ
कम हुई हैं...
सारे हौसले बाजार खा गया है
शर्म आईने की तरह टंगा है दीवार पर
दाँत मांजने के बाद अपने चेहरे का धुला हुआ अक्स
देखने के लिए...
पश्चाताप मुँह पर से पानी पोंछने के बराबर है
शराफत असल में
गुसलखाने या पैखाने
के चारखानों तक ही सिमट गयी है...
क्योंकि पूरे बाहर,
सिर्फ़ जो नंगई है, उसकी तासीर गज़ब की है !
इसको पकड़ने वाली आँखों पर
संभाव्य अवसर की संभावना की टाट झूलती है...
अत: वह नजरंदाज कर दी जाती है.

सारी विभत्सता के बाद
गुलाब बाग़ का सरकारी संपोषित, संरक्षित
गुलाब खिलता महकता रहता है
निरपेक्ष सौंदर्य का नमूना पेश करता है...
वही, जिसका बाजार अनुमोदन करता है,
जिसका सत्ता अभिवादन करती है...

लाल रंग हमेशा पीछा करता है...! सलाम करता है...
खून में दिखता है...
जहाँ बहता है, अपना वक्तव्य भी देता है...
उसको पढ़ने वाली नजर पर भी
दरबारी "ब्राण्ड" की मलाई चढ़ी होती है !
यह अफसोसजनक होने से ज्यादा
घृणास्पद है...

धर्म, विचार और पवित्र जुनून
जैसी संकल्पनाएँ व्यावहारिक रूप से
बेवकूफ बनाने का
सबसे कारगर विज्ञापन हैं...
यह कहना क्षोभ पैदा करने के समान है कि
संकट का छायाभास
खड़ा करना बहुत जरूरी चीज हो गयी है.
ऐसा इसलिए कि
संकट के कई रूपों और व्यक्तिवाचक संज्ञाओं पर
माल बिकने की संभाव्यता बढ़ जाती है.

सवाल करना भी
विरोध करना है
और विरोधी हो जाना यथास्थिति की ढूह को ठोकर
मारना है
सारे अवसादों के बीच भी
यह उत्साह कई गुना बढ़ा देता है...
यथास्थिति को तोडना
दरअसल आदमी हो जाना है...

सवाल करना और संभावनाएं पैदा करना
बेहद जरूरी और जायज हैं...बेहद...

बुधवार, 4 अगस्त 2010

इश्क में नमाजी बन गया

इश्क में नमाजी बन गया अब तो
वो आवारा काफिराई जाती रही मेरी...
दर-ऐ-यार दरगाह बन गया मेरे वास्ते
सर नवाता हूँ मौला, वजू करता हूँ
शब-ओ-सहर सिर्फ़ नाम-ऐ-यार को...
वफ़ा की बंदिशें कहाँ किसको
होती नसीब ऐसे, ऐ साहेब मेरे
बंदगी का लुत्फ़ पाया बाद मुद्दतों...
वो मुस्काती ऐसे कि सारी नेमतें
डाल रही हो मेरी झोली में
ऐसा हो खुदा मेरा, क्यों पूजूँ बुतों को...
कितनी राहत है उस वक्त-ऐ-वस्ल में
तस्कीन देता हुआ उल्फत उसका
रब्बा इस हसीन माज़रे में उम्र तमाम हो...
०३/०८/२०१०

शनिवार, 31 जुलाई 2010

जख्मी सिपाही जैसे सपने

एक सर्वकालिक समसामयिक किस्सा है...
जिसमें, धुंध, धुंए और गर्द के बीच
जख्मी सिपाही की तरह बदहवास,
लहू से लिथड़े...जवान सपने
पड़े थे...
घायल होना जिनकी मौलिक नियति थी
ये कुछ ऐसा ही था जैसे,
पहली बार साईकिल चलाने की
कोशिश में गिरना और घुटनों का छिलना...
और लोग कहते थे कि
ऐसा होना ही था...
जो टकराता है... छीलता भी वही है, और दीवार
भी वही तोड़ता है...

सपने जब चोटिल होते थे,
चारों तरफ राहत के उजाले का
नामोनिशान नहीं था
जोर-जोर से कराहना भी मात्र संकेत था
और सारी भाषाएँ मूक हो गयीं थीं...

आसमान पर नज़र जाते ही, धूप के बरक्स
जली हुई हरियाली की पपड़ी
दिखाई पड़ती थी
और आस-पास की ज़मीन पर
बादलों के टुकड़े
नरम फाहों से बदलकर कठोर
पत्थर में तब्दील हो चुके थे...

हवा बार-बार...
नाम पुकारती हुई किसी तवन्गी प्रेमिका की
तड़प की तरह...
दूर से पास आती महसूस होती थी
पत्तों की खड़क, उसकी पायल की खनक
सी लगती थी...
मन बौखला कर किसी कोमल, गर्म
सीने में मुँह छुपा लेना चाहता था
आश्वस्त होने का बहाना भर ढूँढता रहता था...

कंटीली झड़ियों के सिरों पर...
सफ़ेद, गुलाबी, जामुनी, पीले, नीले फूल
खिले होते थे...
गंधहीन, वैविध्यमयी...
फिर भी मौसम की सही पहचान करना
मुश्किल था

कानों में "साइरन" गूंजती थी... भयावह...
कोई भी सूचना तसल्ली देने के लिए नहीं आती थी

लगातार... उन दिनों,
सूरज का उगना, रोज-रोज,
सारी नयी अपेक्षाओं
के वावजूद कितना बासी लगा करता था !

कामयाबी मुश्किल चीज तो नहीं...
पर मुँह चिढ़ाकर दूर भाग जाया करती थी...
मछली की तरह फिसल जाती थी...
नौसिखिए हाथों से

और जाल बुनना, या तो आता नहीं था,
या मरजाद बेचकर नंगा हो जाना था,
या बेहद महंगा सौदा था !

खिड़की के बाहर
दूर सड़कों पर खालिस कच्ची उम्र की लड़कियाँ,
दुपट्टा उड़ाए जाया करती थीं...
कुछ सपने वहाँ भी पैदा होते थे
और आवारा करार देकर सड़कों पर ही मार डाले जाते थे...

बाजारों में त्यौहार थे...
पड़ोस में गीत गूंजा करते थे...
बहुत से करीबी दोस्त
अचानक बड़े शहरों में गुम हो जाया करते थे

इन सब बेतरतीब प्रसंगों के घटित होने के बीच...

सपनों के भीतर
सपने कई बार टूटते थे, पसीना बहता था और
दीवार की घड़ी अपनी रफ़्तार से बाज़ नहीं आती थी.

फिर भी सपने तो जादूगर थे...
फुसला कर प्रतिबद्ध कर देते थे...!

काफी दिनों से सीने पर
एक खूंटा गड़ा था
जिस पर टंगी तख्ती पर -
"लड़ाई" - शब्द तीन बार तिहराया गया था...

ये एक ऐसी आत्मकथा के टुकड़े हैं,
जो अमूमन सबकी नौजवान एडियों में
कभी गड़े थे
और रह गए हैं...
स्मृति-चिन्ह की हैसियत से...

इस पूरे किस्से का तर्क यह है कि,
सीने पर लड़ाई की घोषणा वाली तख्ती
टांग लेना ही बड़ी बात होती है... और
जख्मी सिपाही बनना,
दूसरी बड़ी बात... !

सोमवार, 26 जुलाई 2010

इस वक्त (लंबी कविता)

आने वाले समय के लिए
इस वक्त दो ही चीजें
हाथ में हैं...
धोखा खा जाने के बाद की मन:स्थिति...
और लगातार चोट खाती हुई आस्थायें
जिनको बचाए जाने की कवायद जरूरी है...
और जारी है !

जहाँ धोखा शब्द का दूसरा अभिधेयार्थ,
चूँकि, आज कल दो अभिधेयार्थों का दौर है !...
फलित निराशा है
और आस्था का,
आशा...!

बराबर चक्की के पाटों के
बीच घिसते-पिसते
अनाज की तरह...दिन
गुजर रहे हैं
जिनका गर्म स्वाद
और गंध बस
शुरू-शुरू में ही अच्छा लगता है.
कल्पना के हाशिए में जाने से पहले तक
और सारे उपक्रम यदि धराशायी ना हों तो ! ये दिन...
फिर बोसीदा भूतकालिक तारीखों में
बदल जाने के लिए...ही तो आते हैं

सत्ता और बाजार के समीकरण में
जो असंगत है,
वही... जिसे सारी ग़ुरबत और बेचारगी ढोने के बावजूद
गरीब नहीं चिन्हित किया गया,
आदमी...
धकिया कर मुख्यधारा से बाहर किया जा रहा है
उसके तमाम वैधानिक अधिकार, उसका वजूद, सपने
गर्त में औंधे मुँह पड़े हैं
वो चीख रहा है..., हक़ के लिए चिल्लाना
पोस्टर बनने जैसा है...
और नगरों-कस्बों में बहुत सारी स्त्रियाँ
मुक्ति के गीत गाते हुए
वापस कठपुतली बन जाने को नियत हैं...
इसे कौन तय करता है,
इस पर गौर किये जाने की जरूरत है.

तथ्य है कि, रचनात्मक पक्षधरता सवाल करती है
सवाल पैदा हो रहे हैं...पूछे जा रहे हैं...
इधर, कवियों की मेज पर
अर्थों के हाशिए से बाहर
खदेड़े गए शब्द लिथड़े हुए पड़े हैं...
और उन्हीं मेजों की दराज में
सूखी हुई दवातों की बोतलें और पन्ने
आदम-जात का पूरा
इतिहास, वर्तमान और भविष्य
सोखे हुए पड़े हैं...
वे सारे लेखक-कवि-फ़िल्मकार स्थितियों के
जाले साफ़ करने की परियोजना का हिस्सा हैं
सवाल तो किये जा रहे हैं... संदूकों और बंदूकों से...

इस समय भविष्य को
देखने वाली दूरबीन का 'फोकल'
कड़वे सच के कुछ बिंदुओं
पर चिपक गया है...
जिन्हें स्वीकार कर थूक निगलते ही
हिचकी आने लगती है...
सत्ता कांखने लगती है और
सांसद हिनहिनाने लगते हैं...
सारी बौद्धिकता परनाले में बहने लगती है
इसी मनोदशा में साबुन की टिकिया का
आखरी अंश ज्यादा झाग छोड़ने लगता है...
और घ्राणशक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि,
पत्तों पर गौरैया का गू भी बास मारने लगता है !

आस्था किसी टापू पर
बची हुई, प्रलय के बाद,
शताब्दियों की अवशेष, कोई अंतिम प्रजाति है...
वहीं के गिने-चुने लोग सत्ता और बाज़ार
के चुम्बकीय असर से
छूटे हुए हैं
और विकास जैसी चमकीली रौशनी के दायरे से
भी गायब हैं ! उनके सवालों
पर विज्ञापन नहीं कमाया जा सकता,
इसलिए उनके सवाल बाजार से गायब हैं
बाजार सिर्फ़ उन्हीं मुद्दों की लीद करता है,
जो उसकी ज़मीन की खाद बनने के लायक हैं...
इसी बाजारू शोर-सूत्र-समीकरण के बीच
ईमानदार और आदमी जैसे लोग, साबुत...
किसी टापू पर चले गए हैं और
उनकी सक्रियता हवा में बुदबुदाने भर हो कर रह गयी है !

यह भी हो रहा कि
तमाम फैसलों की सारी प्रक्रिया में से
बाहर जो आदमी खड़े किये जाते हैं,
उनकी जिंदगियों का चूल्हा
उन्हीं फैसलों के ईंधन पर निर्भर है...
फैसलों के समय इरादतन तवज्जो नहीं दिया जाता कि
इनकी रोटी-दाल का नमक
इन्हीं के पसीनों से ही तैयार होता है
और ज्यादातर उन्हीं की जीभ पर नहीं लगता, क्योंकि
कुछ इरादे साफ़ हैं...
बहुत सारे बेहद नापाक हैं !
दुनिया के सबसे पुराने एक देश में
प्रदेशों के बीच... आग और अंगारों की 'फेंसिंग'
करने की कवायद राजनीति का एक
जानदार हथकंडा हो चुका है...

समय के साथ
अडोस-पड़ोस की दीवारें, गलियाँ
चौराहे और मोहल्ले... बदले हुए
दिखाई पड़ते हैं...
दोस्त - सफलता का मंत्र बताते हैं,
वैद्य और बाबा - नपुंसकता का अचूक इलाज बांटते हैं...
सिनेमा में सच
ठेठ बलात्कार,
भूख और गरीबी
बेचने के इल्जाम के पार्श्व में बुना जा रहा है...
कला समीक्षकों को इसकी खबर कम है,
और आदमी मनोरंजन का ग्राहक है! बेवकूफी की हद तक...

आदमी...
धुँआ, नमक, आटा, वोट और ईमानदारी आदि
कारकों के बीच
"महँगाई-अम्ल" की प्रयोगशालाई प्रतिक्रया से
पूरा क्षरित हो चुका है
और केवल
मतदाता सूची में उसका दर्ज
नाम, लिंग और उम्र
बचा हुआ है...
उसका एक मात्र राष्ट्रिय दायित्व
चुनाव में
एक जैसे सूरत और सीरत वालों में से
किसी को भी चुन लेना भर है...
इसके बाद तमाम दुर्घटनाओं की खबरें पढते रहना है
 
लगातार गोलियों की आवाजों के बीच
नवजात की रुलाई जैसी कोई पैनी चीज कानों में
अक्सर भोंक दिया करता है कोई...
तुरंत, रिश्तेदार समझाते हैं कि आग में मत कूदना,
तुम्हारे पीछे बीबी है, बच्चे हैं,
मन में पिघला लावा परिवार की चौहद्दी में ही
खट्टा दही
हो जाता है !

लेकिन इसी वक्त
बराबर...
पगलाये हुए से नहीं दिखने वाले लोग
पागलपन की हद तक जाकर
पानी, आँसू, पसीना, बादल और... शर्म
जैसी तमाम गीलीं चीजों को बचाने में लगे हैं
यद्यपि उनकी मेहनत पारदर्शी हो गयी है...!
उनको सलाम करने का हौसला, जज्बा और सहूलियत
उनके काम से एक मुश्किल काम है ! इसलिए,

बाकि लोग समर्थक या निंदक की भूमिका में हो गए हैं...

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

विद्रोह्धर्मी

आप हमलोग का घर से ऐसे ही चले जायेंगे! सुमिता इतने आग्रह, इतने अधिकार से बोलती कि कुछ कहने को फिर बाकि नहीं रह जाता... जिसे देख दुख भी शरमा जाये, वैसा विमल चेहरा और उस पर तुर्रा यह कि किसी को भी बिना मुँह जुठा कराए अपने द्वार से उठने नहीं देने का उसका कट्‌टर स्वभाव... श्रीमोहन को आश्चर्य की हद तक आश्चर्य होता था पहले-पहल, ब नहीं... अब तो वह सुमिता भाभी को पहचान गया है.
कुछ बोलने के लिए मुँह खोला नहीं कि सुमिता हँसते-हँसते एक खास लहजे में बोल देगी, हाँ, हमलोग तो छोटा आदमी, हमारे यहाँ कहाँ खाएगा आप...
क्यों ऐसे शर्मिंदा कर रहीं हैं आप..., श्रीमोहन के मुँह से घुटी-घुटी सी आवाज़ फूटती. यह नियमित और पुख्ता आतिथ्य उसे भावविभोर किए हुए थी.
अभी कुछ नहीं, जब शादी हो जायेगा तो सब याद रखने लगेगा..., सुमिता ने कैसे एक साथ मज़ाक, क्षोभ और लड़ाकूपन से कहा था, जब उसने सुमिता को आचार के लिए कच्चे आम तो दिए थे, पर जो श्रीमोहन के ही हाथों अधपके सड़ जाने से ‘हम दूसरा बना देंगे’, वह बोली थी, आप बस एक ज़ार ले  आना, तो उसके कहने पर भी वह संकोचवश ज़ार नहीं लाता था. इसी बात पर सुमिता का स्नेहिल क्रोध उस पर उतरा.
भाभी, लड़की तो आपको ढूँढनी है, बस एक अपनी तरह का ले आईये. 
सुमिता हँसती, मेरा तो कोई बहिन भी नहीं बचा, सबका शादी हो गया, नहीं तो...

सुमिता का घरवाला मुख्य मार्ग पर हनुमान मंदिर के सामने गोलगप्पे का ठेला लगाता, शादी-ब्याह में गोलगप्पों के आर्डर मिलते, दावत की सारी सामग्री बनाता. भोज कारीगर था. मगर सुमिता का हाथ लगे बिना भी कुछ भी हो ही नहीं सकता था. दिन-रात एक करके वह गोलगप्पे की पूड़ियाँ, पापड़ियाँ छाँकती. उसके हाथों में तो तिलिस्म था. कोई चीज़ कभी बेस्वाद बन जाए, इतनी हिमाकत चीजों में कहाँ थी!
एक दफे जब श्रीमोहन कलाकंद ले आया था, तो उसे उम्मीद थी कि बच्चे के अलावा भाभी भी लेगी, तब वह बोली थी, हम बाहर का नहीं खाता. जो अच्छा लगता है, घर खुद बना लेते हैं.
कहीं कोई दिक़्क़त नहीं. एकदम सीधी ज़िंदगी. पत्नी पति का आधा हिस्सा किस तरह होती है, श्रीमोहन को लगा यह बात अब समझ सका है. सुमिता का खुला बर्ताव उससे पहली बार जानने से ही खींचता था. और वह अपने बे-पलस्तरे मकान से कुछ ही फ़र्लांग पर बहती स्वर्णरेखा की कलकल सी चंचल लेकिन तटबंधों में सिमटी, लट्‌टू सी नाचती घरेलू कामों में मशग़ूल रहती. समझने वाले कुछ भी समझा करें, सबसे हँसीमुसी, सबसे स्नेहापा, सबसे बोलचाल...
बिना आहट के जो मन पर छा जाय वही तो सुगंध है! कस्तुरी, गुलाब, बेलीजूही, रजनीगंधा, चंदन, प्रेमिका के ताजे धुले हुए बाल... कैसा-कैसा... या फिर उसकी हथेलियों जैसा, हल्दी और मसालों का हल्का पीलापन और गंध बसाए. उसकी साँवली हथेलियाँ. आपका भैया कितना खटता है. वह कहती. अनिरूद्घ सचमुच मेहनत करते हैं. नहीं करते तो?  घर-गिरस्थी, खाना-कपड़ा मेहनत के इसी तने हुए तार पर टिके हैं,  आलस की एक उबासी सब असंतुलित कर रसातल में गिरा देगी. श्रीमोहन हँसते-हँसते कहता, आप बहुत अच्छी हो भाभी. और भाभी भी हँसती. हँसी... बेदाग़, उछाह भरी उसकी हँसी. कितना सुंदर रह जाता था सब कुछ; सुंदर भाषा की सुंदर लिपि की तरह वर्तुलाकार...
तालाब के किनारे की उठान पर हरियाली मेंड़ें - गहरा नीला पानी और बाँस के झुरमुटे- घरों की खिड़कियों-रौशनदानों से निकलती भात के गर्म भाप की गंध - रसोई से चटख सब्जी की, छौंक की महक...!
श्रीमोहन तो सुमिता के बेटे का टयुटर है... वह रोज़गार की तलाश में राजस्थान, दिल्ली-गाजियाबाद, खड़गपुर कहाँ-कहाँ घूम आया था. लेकिन, जितनी आत्मीयता और अपनापा उसे अपनी इस मिट्‌टी से बिन-माँगे मिला, वह और कहाँ था!
मई के दिन और इस बार मौनसून जल्दी धरने की संभावना, प्राय रोज अच्छी मानसून-पूर्व वृष्टि हो जाती. यह तो घाटशिला के मौसम का स्वाभाव था, हाँलाकि बीते बरस की गरमी ने जन-जानवरों की जान सुखा दी थी. सुमिता के यहाँ श्रीमोहन के दिन बीतने लगे थे. मन लगने लगा था. सुमिता उसी भरी मुस्कान से पूछती, मास्टर जी, चाय लीजिए. लेकिन सूखी चाय कहाँ होती थी! गोलगप्पे-पापड़ी, मकर संक्राति के अगड़े-पिछाड़े दिनों में गुड़पीठा और दूसरे पीठे ( और साल में आम तौर पर चावल का नमकीन पीठा बनाती), मीठा-तीखा, बादाम की फलियाँ, कभी कुछ तो कभी कुछ,  और कुछ नहीं तो बिस्कुट वह प्राय रोज मँगवा लेती थी. हमारे घर (गाँव) से आए हैं. वह बताती. गाँव में बादाम की खेती थी. श्रीमोहन बहुत दिनों तक बादाम फाँकता रहा.
अच्छा मास्टर जी, हमलोग तो अनपढ़-मूरख. एक ठो बात पूछें? श्रीमोहन सिर उठाता,
सरकार का काम क्या होता है?
शासन करना... वह मुस्काया.
वह इशारा कर के कहती, ये सामने वाला मकान बनता देख रहा है ना, यह वी.पी.एल. वाले, लाल काड वाले को मिलने वाले पैसा से खड़ा हो रहा है. और मिला है सेठ को. हमलोगों को भी घर बेचा. इसको भी बना के बेच देगा, बेसी दाम पर. सरकार देख रहा है ?
भाभी, सब जगह एक ही बात है, भ्रष्टाचार को क्या देखें. लोग सब ठीक होगा तब ना. लोग का हाथ में सबसे बड़ा ताकत, लेकिन क्या पता सही दिशा में वह जा पाती है, या जाने दिया जाता भी है या नहीं...
हाँ, सबसे बड़ा ताकत तो पैसा का,  और उसका आगे...
छोड़िए भाभी, मन खट्‌टा करने से फायदा नहीं.
लेकिन बात छाती को लगता है. तभी तो... उस साल गाँ में पोखर बनाने के लिए सरकारी पैसा लिया, मगर हरामी लोग उस को खा गया और फिर उस पोखर को खराब, काहे कि बकरी-बाछुरी (बछड़ा) उसका पानी पीने से खराब हो रहा है, बोलके बंद कराने के लिए भी फिर सरकार से पैसा ले कर खाया. जो पोखर कागज-पत्ता पर बना और कागज-पत्ता पर बंद हो गया! ऐसा-ऐसा लोग है... तो उगरवादी लोग मारेगा नहीं, सुमिता कहती जाती और श्रीमोहन को उसकी नाक पर, नाक के बगल में और गालों पर पसीना चुहचुहाता दिखाई पड़ता.
उमस काफी रहती थी इन दिनों, बरसात पड़ जाती तो भी दिन भर भयंकर उमस... पसीना जिस्म के पोरों से बेसाख़्ता निकलता रहता, कमीज़ गीली रहती हरदम...
पं. बंगाल में वाम दलों का परचम लहराया था फिर एक बार... अमय दास, पिचहत्तर साल का सयाना बूढ़ा, बोलता, असल जीत जनता की होती है. तब सुमिता लड़ पड़ती ससुर से, लोग क्या खा कर लड़ेगा, क्या जीतेगा? मास्टर बुदबुदाता था, सारे प्रिंसीपल पेट के सामने लाचार, बेकार...

एक शाम जब सुमिता इमरजेंसी बैटरी की रोशनी में श्रीमोहन को चाय दे रही थी, मास्टर उसके माथे पर चिपकी बड़ी-सी लाल टहटह बिंदी को एकटक देख रहा था. थोड़ा सा है, खा लिजिए... वह मुस्कुराती बोली. मास्टर ने प्लेट में देखा. चाट से लबालब भरा. इतना सारा! दो प्लेट भर के...! क्या करूँगा?  खाएगा और क्या करेगा ? वह हँसी. और हँसती रही. बाहर झींसा-झींसी शुरू हो गई थी. आज रात बिजली नहीं आाएगा, वह कह रही थी. लेकिन मास्टर उसकी आवाज़ में मायूसी नहीं महसूस रहा था. डीवीसी लाईन का यहाँ यही चलता है... बिजली नहीं रहने से परेशानी तो होती है. उसे भी होती. वह भी कोसती; मगर आज?
पको गाना आता है भाभी? वह जाने क्या करके पूछ बैठा था. वह हँसी... दीवार के पीछे से हँसी आई उसकी. की... गान ? हम क्या गान करेगा मास्टर जी! वह शोखपन से बोला था बंगला में, ना, गान करो ना बऊदी...

शाम के मुँह अँधेरे में... बारिश की सिहरी में सुमिता गाई. रवीन्द्र संगीत का एक बेहतरीन टुकड़ा... पागला हवार बादल दिने...पागोल आमार मोन जेगे उठे.../ वृष्टि निशा भोरा संध्या बेला...
रात गहरी होती गई.... नदी से सटा इलाका वर्षा की फुहार से भीगता, सन्नाटे में दादुर की टर्राहट और झींगुरों की चिर्राहट में काँपता-काँपता सो गया. श्रीमोहन खाट पर बैठा बड़ी ढिबरी की पीली रोशनी में सुमिता के साँवले कंधों को, जो इस समय और गहरे वर्ण के हो गए थे, देख रहा था.
बऊदी, आप पता नहीं समझोगी या नहीं, लेकिन सबसे बड़ा लड़ाई आदमी का अपने आप से होता है. अपने आप से हार गया तो सब खतम.
बऊदी ने उठ कर खिड़की के पल्ले बंद कर दिए. ठिठुरती हवा बाहर सिर मारती रह गई. वह दरवाजे की ग्रिल के पास बैठ गई.
आप को डर लग रहा है ?
सुमिता हँसी, किससे ? फिर उसका चेहरा सख्त हो गया, डर लगता है,  आजकल समय ठीक नहीं... मारने वाला, बचाने वाला सब एक जैसा! पहचान वाला... सबसे डर लगता है. किसी का बिस्सास नहीं. इधर एका रहने में बहुत डर है. किन्तु आपसे नहीं. वह मुस्काई.
भईया कब तक आऐंगे ?
अब कल ही आऐगा आपका भईया. आडर में गया है.
ठीक है, तो मैं निकलूँ. आप भीतर से दरवाजा ठीक से बंद कर लीजिए.
मास्टर बाबू,  आप भी डरता है ? सुमिता ने उसे देखा और हाथ की चूड़ियाँ हटा कर कलाई खुजलाने लगी.
हाँ भाभी.
किससे?
आपसे.
हमसे!
हाँ, आपसे... आप नहीं जानती... आप..., बाकि शब्द उसके मुँह से निकलते-निकलते जबान में ज़ज्ब हो गए. फिर वह एक अलग बात बगैर संदर्भ और भूमिका के बोला, सबसे बड़ी लड़ाई सिद्दांतों की भी है...
तभी खिड़की का पल्ला झटके से फिर खुल गया. श्रीमोहन ने भाभी को देखा, सुमिता फिर उठी थी और खिड़की बंद करने लगी... तेज फुहार ने हवा के झोंके से अंदर आ उसे भिगो दिया. चेहरे, बाँहों, गर्दन, गले के नीचे सीने के उठानों से ऊपर और कमर पर बूँदें लालटेन की धीमी रोशनी में भी चमक उठीं. वह बंगला में बोली, मास्टर बाबू, ऐई भावे की देख्छो ? बुद्घि खाराब कोरबे ना...
श्रीमोहन हँस पड़ा, क्या भाभी,  आपको मुझसे डर नहीं लगता तो ये बात कैसे बोल रहीं?
लगता है... वह फुसफुसाई... खिड़की का पल्ला जोर से काँपा.

श्रीमोहन के पंजों में उसने अपने पंजे उलझा दिए थे.   
और, श्रीमोहन तब से, पता नहीं कब से, श्रीमोहन कितने दिनों-महीनों से, ऐसी ही किसी नाजुक हालात की कल्पना करता आया था. आज भी कर रहा थाभी तक भी उसके जेहन में था... मगर  अभी एकदम से माजरा समझ कर हकबका गया. भाभी,  आप तो... अब उसे एकांत के असर का एहसास हुआ. बुबाई मामा के घर गया था  और उसके दादा उसके साथ. घर पर कोई नहीं. सामने मानों फैंटेसी की दुनिया से सुमिता गूँज रही थी, शादी-शुदा है हम. आप को डर लगता है...? नियम उसूल का बात करता आप,  आप में तो बहुत हिम्मत है... नाड़ियों में लावा दौड़ने लगा, हमारा शामी का हम, किन्तु हमारा कौन ! समझता है ना आप ? नियम से शादी किया. हमलोग से लोक-संसार जो माँगता है, वैसा इज्जत से रहता है. बाबा और शामी का इज्जत रखा. आप बोलो हमको तो जिसको पसंद नहीं एकदम भी, उसको भी सब देना पड़ता है. तो जो पसंद है उसको मर्जी से काहे नहीं देगा...? सुमिता का चेहरा एकदम से पलट गया था. उसके चेहरे से सट गया था और श्रीमोहन को उसकी साँसों की भाप लगी.
उस रात बिजली आई ही नहीं. उस रात बारिस लगातार पड़ती रही... कभी धीमी तो कभी पगला कर...
उस रात आदम और हव्वा की संततियाँ मीठे सुर में जीवन राग गाती रहीं...
श्रीमोहन चला गया था, और सुमिता अपनी बाँह पर सूजे हुए, उभरे कुछ निशान देख रही थी. एक पुलक थी उन्हें देखते हुए उसके भीतर कहीं...

उन दिनों की खबर थी कि नेपाल में राजशाही निर्मूल हो गई. और आम जनता, माओवादियों ने लोकतंत्र का बिगुल फूँका है. श्रीमोहन प्राय कहता रहता और पड़ोस में मनसा मंदिर के चबुतरे पर बैठे बूढ़े अमय दास को बताता, नेपाल में तानाशाही खत्म... जनता का शासन होगा... कैपटेलिज्म, कम्यूनिज्म या र्माक्सिज्म की बहस छोड़िए... सबसे बड़ी बात, जनता, दबी-कुचली जनता का, लड़ाई अपने हाथ में ले लेना है. लोकसंघर्ष कभी नाकाम नहीं होता... चाहे सफल होने में हजार बरस लग जांय...     
सुमिता चाय की प्याली में छिलके वाले भूने बादाम रखके लाती और बोलती, ह-ओह, मास्टर जी तो बड़ा भाषण देता है... लोग लड़ेगा कैसे ? गरीब आदमी को भात नहीं तो, भाग भरोसा बैठेगा नहीं तो क्या करेगा... लोड़ाई क्या हवा में होता है. ऐसी कुछ टिप्पणियों की वजह से श्रीमोहन समझने को मज़बूर हो जाता था कि सुमिता भले कलम-कागज़ नहीं उठा सकती है, पर दिमाग से बहुत आगे है.  आम जनता में भी, जिसको ‘ले-मैन' कहा जाता है, गैरप्रशिक्षित जनता में भी, भुक्तभोगी जनता में भी इसी तरह तर्क, विरोध और संघर्ष करने की सहजात प्रवृति और क्षमता होती है.
सुमिता हँसती, बोलती, ठिठोली करती... आसपास में लोग सोचने-बोलने लगे थे, निरूद्घ की घरवाली मास्टर से फंसी है क्या ? जरूर... मास्टर खाली पढ़ाने आता है क्या...? लेकिन बहती नदी को क्या इससे अंतर पड़ता है कि उसमें लोगों ने अपनी कितनी गंदगियाँ छोड़ी...

नेपाल में तानाशाही खत्म हो चुकी थी. लोकतंत्र की ईंट डालने के लिए माओवादी हिंसा छोड़ मुख्यधारा में आने को तैयार थे, घोषणा कर चुके थे.
विशाल  आम सभा में, जो राजमहल से कुछ ही दूरी पर हुई थी, तानाशाही राजा को मृत्युदंड देने का आह्वान किया गया था... लगभग इन्हीं दिनों या इसके कुछ ही दिनों बाद झारखंड के किरीबुरू में नक्सलियों ने सीआरपीएफ (केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल) के १२ जवानों को लैंड माइन में जीप उड़ा कर मार डाला था. उसके बाद हड़ियान में तीन लोगों, जिसमें एक ग्राम प्रधान भी था, जो गाँव में कार्य करवाने के सरकारी ठेके लिया करता था, की आदिवासी पूजा स्थान - जाहेर थान में गला रेत कर हत्या कर दी थी. नक्सलियों ने इस आशय के पोस्टर चिपकाए थे कि लाँगो में अपने साथी कामरेडों की हत्या का बदला लिया गया है. कुछ साल पहले पूर्वी सिंहभूम के डुमरिया के लाँगो में नक्सलियों के सामूहिक संहार के बाद तय था कि वे बदला ज़रूर लेंगे.

अमय दास मंदिर के चबूतरे पर बैठ के बाँस की झुरमुट की तरफ ताक रहा था, श्रीमोहन ने उसके हाथ में थमे अखबार के कुछ फड़फड़ाते पन्नों को देखा, पहली हेडलाईन यही खबर थी.
एक बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है काका, समाज में, राजनीति के संदर्भ में एक भयानक विस्फोट होगा.
जानी (जानता हूँ), किन्तु क्रान्ति के लिए इतना खून और निर्दोष खून बहाना जरूरी है?
तो क्या क्रान्ति बैठ के चरचा करने से आएगी! दुनिया में हर क्रान्ति खून दे कर ही हुई है, खून माँगती है. हाँ मानता हूँ, निर्दोष खून नहीं बहना चाहिए. निरीह-निर्दोष के जान की क्षति एक शर्म और पछतावा ही देती है. निर्दोषों की हत्या से क्रांति नहीं आती. आखिर सारी लड़ाई तो उन्हीं निरीह जनता के लिए है.
तो नीचे स्तर के बेचारे पुलिसवालों को मार कर क्या यही नहीं कर रहे वे? हाई लेवल के लोग जो असल जिम्मेदार हैं, उनको टारगेट करना चाहिए.
लेकिन पुलिस को मार कर वे उनकी, पूँजीवाद की पोषक, निरंकुश सत्ता की शक्ति को छेद रहे हैं, उनके तंत्र को कमजोर करना उद्घेश्य है इनका. सत्ता की मशीनरी को तोडना भी बदलाव का एक हिस्सा है, लड़ाई के भीतर है. आप ही बोलो ना, जालियांवाला बाग में अपने ही लोगों पर गोलियाँ दागने वाले हाथ भी हमारे ही लोगों के थे, भगत सिंह को फांसी पर लटकाने वाला जल्लाद भी भारतीय ही होगा ना. अपने ही लोग जब व्यवस्था के हाथों खूंखार कठपुतली बन जाएँ तो क्या कीजियेगा? यही पुलिस फर्जी एनकाउन्टर में बेगुनाह आम आदमी की हत्या कर उसे कानूनी चोगा पहना देती है, शांतिपूर्ण जुलूसों और हड़तालियों पर लाठी और गोलियां बरसाने वाली यही पुलिस ही होती है. औरतों के कपडे नोंचकर बलात्कार करने वाली भी यही... पुलिस का चेहरा शोषक का है काका, हज़ारों रूपये और दारू की बोतलों पर इनका ईमान और कर्तव्य भसिया जाता है. इस लोकतांत्रिक देश का सबसे बड़ा शर्म, घूस, भ्रष्टाचार, अनाचार में लिप्त यह पुलिस... गरीबों और मजलूमों को जैसा चाहे, वैसा चूसती है, मसलती है मास्टर (पहली बार और इस बात पर) उत्तेजित हो गया था.    
अमयदास ने कुछ सोचकर कहा, लेकिन अब तो वामदलों और नक्सलपंथ में भी वैचारिक-सैद्धांतिक धड़े हो गए हैं... वे लोग खुद ही भीतर से टूट रहे हैं... हिंसा के सवाल पर
हो सकता है काका, लेकिन मैं तो हमेशा उस विचारधारा को सलाम करूँगा, जो आम आदमी को शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष करे. अतिशय हिंसा भी तो निर्थक साबित होती है... लेकिन चीजें तभी बदलती हैं, जब आप को उनके बदलने का विश्वाश हो.  
सुमिता हँस पड़ी, क्या बदलेगा मास्टर जी... ना आप, ना हम, ना दुनिया...
आप समझेंगी नहीं भाभी... हालत से मन बुझाना ही नहीं है. जो है, वह बदलेगा. उसको हम बदलेंगे, ऐसा सोच के ही चलना होगा. नहीं तो सब पुँजीपतियों की जूतियों के पुराने कील भर बनके रह जाँयेंगे, जिसे जब चूभने-गड़ने लगे, निकाल के फेंक दिया जाता है! अब तो सच भी बाजार में बिकाऊ हो गया है काका, उसकी आवाज जोशिया गई, देख नहीं रहे मीडिया बेच रहा है मनगढंत सच्चाईयाँ, बनाऊ-बिकाऊ, बनावटी खबरें... सच और खबर उत्पाद हो गई. हर चीज़ का बाजार वैल्यू उसकी जगह और जरूरत तय करता है यहाँ.
सुमिता गीले कपड़ों में ही नदी से नहा कर, तालाब से बरतन धो आदि कर के चली आती थी, उस बस्ती का ये आम चलन था, आम औरतें, लड़कियाँ ऐसा ही करती थीं. फिर भी कहीं कोई नैतिकता का उल्लघंन नहीं! श्रीमोहन सोचता, हर समाज, हर समुदाय अपने नैतिक नियम खुद कितना खूब गढ़ लेता है. यह तो बाहर वाले जबर्दस्ती उस पर चोट करके अतिरेक भरने की कोशिश करते हैं, और सब विकृत हो जाता है, कर दिया जाता है...तिरस्कृत हो जाता है...

अभी दो दिनों की लगातार जोरदार बारिश के बाद उमस भरे दिन थे... और ऐसी ही रात... पसीना चूचुआती देह से लिपटे दोनों में से एक ने बाहर धुँधलाए चाँद को देखा और बाँहों में रह रहे साथी का माथा चूम लिया...
तुम कहीं चला तो नहीं जायगा...? लालटेन की थरथराती रोशनी की तरह की ही काँपती जनानी आावाज़.
कहाँ ? श्रीमोहन उसके चेहरे को टुकुर-टुकुर देखने लगा, और फिर चूम लिया...
बाहर कहीं, कहीं भी. तुम्हारा ठिकाना क्या?
तो आप क्या हमेशा ऐसी ही रहोगी भाभी... एक मुस्कान उसके चेहरे पर आई, जिसको उसने बिना देखे भी भाँप लिया. , ऐई... अभी भी हमको भाभी बोलेगा... बोदमाश...?
नहीं... इस समय ना आप, आप हैं,  और ना हम, हम... हमलोग दो स्त्रोत हैं परस्पर आनंद के. हमलोग तो सिर्फ एक मर्द, सिर्फ एक औरत हैं इस समय. हमारे बीच एक सीधा रिश्ता है, जो प्रकृति के नियम से बना है, और उसी को मानता है... समाज लोक के बनाए नियमों को नहीं...
तुई ओनेक बोकी मास्टर... ज्यादा पढ़ा-लिखा है, यही दिखाता है क्या...
सुमिता उसकी नाक के बाँई बगल में धड़कती शिरा पर ऊँगली फिराती हुई रख दी.
खाली बोलता नहीं मैं, वक्त आने से कर के भी दिखाता हूँ... दम है... कहे को करे में बदलने का. समझी आप... मास्टर ने उचक कर उसके होंठों को चूमना चाहा तो उसने चिंहुक कर चेहरा खींचा, चुंबन उसके होंठ के बाँए कोर पर पड़ा...
उस रात, उस उमस भरी रात जब हवा इतनी मंथर कि पत्तियाँ भी कसमसा जाँय, चाँद इतना धुँधला -- जैसे बादलों के झीने, गंदले पर्दे में छिपा... और वे दोनों इतने-इतने पास कि, दोनों की रूह सरगोशियाँ कर सकें. इतने ही चमत्कारों से भरी वह रात आगे बढ़ी,  बूढ़ी हुई और ढल गई.

(पुराने और पारंपरिक कथावाचक यह कथा सुनाते तो कहते, ऐसी रात सुमिता के लिए आखिरी रात थी. श्रीमोहन तो मुँह अँधेरे चला गया था. उसका जाना हमेशा के लिए हुआ.)    

श्रीमोहन गिरफ्तार हो चुका था.
ऐसे देश में जहाँ भगतसिंह और मार्क्स को पढ़ना अनपढ़ या अल्पपढ़ सत्ता की आँखों में अपराध है, खूँखार नक्सली साहित्य रखने और नक्सलियों को गुपचुप मदद करने जैसे संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त होने के पर्याप्त सबूत पुलिस उसके ठिकाने से उगाह चुकी थी. यानि, एक प्रमुख स्थानीय अखबार का सिर्फ़ वह टुकड़ा भर, जिसपर किसी माओवादी पुस्तिका का हवाले से, जलते हुए हर्फे थे, ... की रात लाँगो गाँव मौत की काली चादर ओढ़े थी... बड़ी बेरहमी से कत्ल किया गया था जनता के वीर संतान ... का. कुछ अक्षरों में उन वीर शहीदों की जीवन गाथा समाप्त नहीं हो सकती. सिद्दो-कान्हू-बिरसा-तिलका के परंपरा से अनुप्राणित इन योद्दाओं ने शोषणमुक्त समाज तैयार करने के लक्ष्य में अपनी जिंदगी के अंत तक काम करते रहे. लाँगों काण्ड निश्चित रूप से क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक बड़ा आघात्‌ है. लेकिन इस इलाके के तमाम कामरेड दृढ़ता के साथ संग्राम में जुटे रहेंगे. साथियों को खोने के शोक को नफरत की आग में बदल कर नक्सलबाड़ी आंदोलन की धारा प्रवाह से भारतवर्ष के अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी क्रांतिकारी आंदोलन का बीज अपने लहू से बोये हैं, उन अमर शहीदों के आत्म बलिदान की कहानी आने वाली पीढ़ी को और भी ज्यादा सशक्त बनाने का काम करेगी. साथियों की हत्या कर के शोषक वर्ग ने समझा होगा कि खेतिहर क्रांति की आग को बुझा दिया है तो वे यह बात भूल गये कि कामरेड चंद लोगों की शक्ति नहीं, मार्क्सवाद, लेलिनवाद-माओवाद के प्रतीक हैं...’
  अमयदास रोज की तरह, मंदिर के चबूतरे पर बैठा अखबार देख कर पता नहीं किससे, शायद पास में थोड़ी दूर मसाले बाटती सुमिता सेपने आप से या फिर हवा से, ऊँची आवाज़ में कह रह था, हमको मालूम था. लड़का का बात से हमको डाउट लगता था... किन्तु
सुमिता जानती थी या शायद नहीं जानती थी कि, ऐसा कभी होगा ?  वह बसंत के मुरझाए फूलों के ढेर पर बैठी रह गई हो जैसे ! सोचती रहती, क्या सचमुच उसूलों और प्रतिबद्घताओं के कारण प्रेम और जीवन में स्त्री से मिलने वाले सतत्‌ भरपुर प्रेम, निर्भय और समर्पित प्रेम, माँसल प्रेम को गौण बता गया श्रीमोहन ! सुमिता की सीमित साक्षरता उसमें भगत सिंह की परछाईं तो ढूँढ नहीं सकती थी... ना वह उसे अपराधी ही मान सकती है. सवाल यह भी है कि क्या श्रीमोहन सचमुच माओवादी था ? नक्सली और माओवादी की परिभाषा क्या है, और उसका सरलीकरण कर जिन सब लोगों पर ये परिभाषा चस्पां की गयी है, क्या वे सब लोग इसमें फिट बैठते हैं ? आदिवासी और दमित-शोषित लोग जमीनखोर हैं, या भौगोलिक संसाधनों को दुहने वाले वे पूंजीवाद के कीड़े हैं असल जमीनखोर ? क्या विद्रोही विचार-भावना वाला और असंगत व्यवस्था से विरोध पालने वाला, अपने हक़ का तर्क रखने वाला, हर कोई संविधान-विरूद्ध घोषित कर दिया जायेगा...इस देश में ?

क्या श्रीमोहन किसी दिन मुठभेड़ में मारा जाएगा... अखबार में उसकी खबर, जिसमें उसको, कुछ लोगों के साथ, समाज का पनायक घोषित-साबित किया गया होगा और उसकी लाश की विरूपित तस्वीर छपेगी... क्या तब वह समाज के किसी वर्ग के मंतव्य में शहीद कहा या माना जाएगा...?या शिकार !  इन सभी बड़ी-बड़ी और स्वभाविक मसलों को सोचने का माद्दा सुमिता के फटे कलेजे में नहीं है... दरअसल उसकी मेधा के बाहर की चीज़ भी है.

सुमिता फुसफुसाहट से गा रही है... आमार वेला जे जाय, साँझ वेला ते...
रवीन्द्र संगीत वर्षा बूँदों की तरह उसके ओसारे पर टपक रहा है.  

(ये कहानी अब तक कहीं भी प्रकाशित नहीं है. कुछ साल पहले लिखी थी. थोड़ा संशोधन भी किया है. ताकि सामयिक लग सके. इसका शीर्षक भी बदल दिया है. अब शायद कुछ बाह्य स्थितियां बदल गयीं हों, आंतरिक हालत तो वैसे ही हैं, सत्ता के चरित्र और शोषण के, मुक्ति की आशा के, संघर्ष के इरादों के.इसलिए सवाल पूछने ही होंगे...)
- शेखर मल्लिक
13 & 14 July, 2010
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